अरुण भारद्वाज
आज फिर इस नकली चकाचौंध के बीच काम करते करते आँख लग गयी और पहुँच गया अपने गाँव।12-13 साल का नासमझ बच्चा 25 साल के गुलाम जवान की रूह से बाहर निकला।
पतली गली को चीरते हुए रोशन की दुकान से 2 मुंग के लड्डू लिए और साईकल के पुराने से टायर को छोटी सी डंडी से मारता हुआ, गंदे पानी वाले तालाब का रास्ता पार कर लोहे के दरवाजे को कूदकर पार किया।
उसने सरकारी स्कूल के खाली मैदान पर नजर दौड़ाई। स्कुल की छुट्टी हुए 1 घंटे से ऊपर हो गया था, स्कूल सुनसान था, कोई भी अभी तक खेलने आया नहीं था ।
‘कोई बात नहीं।’ उसने अपना टायर लिया और पीछे वाली दीवार कूद कर शमशान वाले रास्ते चल दिया। डर तो लग रहा था लेकिन इतने दिनों बाद वह ‘जिन्दा मुर्दों’ से आजाद हुआ था तो वहाँ से भी भागता हुआ चला गया ,जाल के पेड़ से मीठी पील तोड़ी।
वही एक मुर्दे को जलते देखते हुए पील खाता गया । अनायास याद आया – समय कम है सब बच्चे खेलने आ गये होंगे मेरा इन्तजार हो रहा होगा । वो अपनी टीम का कप्तान था, फटाफट उसने टायर उठाया और दौड़ता हुआ स्कूल पहुँच गया। अभी तक कोई नहीं आया था।
अरे, आज ऐसा क्या हुआ जो कोई भी खेलने नहीं आया । दिमाग में कुछ आया, दरवाजे से छलांग लगाई और फुल्लू की गोलगप्पे वाली रेहड़ी पर उसने मिर्च दहीभल्ले बनाने के लिए कह दिया। फुल्लू ने रेडियो की आवाज तेज की। मैच का टॉस हो रहा था ।
दही भल्ले की प्लेट हाथ में देते हुए फुल्लू ने कहा – आज धंधा मुश्किल से सौ रूपए होगा। सब घर में मैच देख रहे होंगे। बड़ा दुःख हुआ मुश्किल से थोडा सा समय मिला, सबके साथ खेल भी नहीं पाया।
कोई बात नहीं आज दही भल्ले से काम चला लेता हूँ । जैसे ही मिर्च दही और भल्ले से भरी चम्मच मुँह तक लेकर गया आवाज आई “एक्शन”।
एक हीरोइन रो रोकर बोल रही थी मेरा पूरा बचपन छिन गया?
(लेखक अभी रश्मि शर्मा टेलिफ़िल्म्स में कार्यकारी निर्माता के तौर पर कार्यरत हैं। ” नीला भगवान ” नामक एक चर्चित उपन्यास लिख चुके हैं । यूटूब के लिए लघु फ़िल्में बनाते हैं और अख़बार – पत्रिकाओं के लिए लेख भी लिखते हैं। मूल रूप से हरियाणा निवासी, फ़िलहाल मुंबई में हैं।)