तो ऐसा देश आजाद नहीं…

पूजा सिंह

आज़ादी क्या है? यह नहीं कह सकते कि हम या आप आज़ाद भारत मे नही हैं अथवा हमें आज़ादी नहीं मिली । विडंबना ये है कि आज़ादी का अर्थ समझने वाले यहाँ कितने हैं, ये देखना जरूरी है। आज़ादी का अर्थ है व्यवस्था ।व्यवस्था यानी बाहर से थोपा गया अनुशासन नहीं । अनुशासन अपने अंदर होना चाहिए । इससे हम नियमों का पालन स्वेच्छा से करते हैं और ऐसा करने में दबाव महसूस नही करते और जब अनुशासन का पालन होने लगे तो व्यवस्था स्वतः ही बनती है। इंसान जब अपने विचारों को स्वतंत्र रखता है, स्वयं से और दूसरों से भी प्रेम करना सीखता है,संस्कृतियों को और भाषा का सम्मान करता है । स्त्री और पुरूष के बराबर अधिकारों की बात होने लगे, तभी रहते हैं हम आज़ाद भारत में ।
15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू,मौलाना आज़ाद सरदार वल्लभभाई पटेल,आदि महापुरुष जब आज़ादी का जश्न मना रहे थे तो गांधी जी कलकत्ते में आज़ादी का मतलब समझाने में लगे थे । उनका कहना था कि अंग्रेजों का भारत से चले जाना ही आज़ादी नही है ।                                                   अगर वर्तमान समय में देखें तो हम प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से अब वहीं के वहीं खड़े हैं । जिन महापुरुषों ने देश का गौरव बचाने के लिए अपना बलिदान दिया, जो वीरांगनायें जौहर को सपर्पित हुईं हैं, उनके बलिदानों की उष्मा का अनुभव कर पाना भी मुश्किल है । मैं ये नही कहती कि हमने अपने संस्कृति को बचाए नही रखा लेकिन दूसरी तरफ उसी गति में हम अपनी सभ्यता को भी तो खोते जा रहे हैं । आज मणिपुर में जिस तरह की असभ्यता दिखाई गई है, यह अनुचित है । अब प्रश्न ये उठता है कि ये जो असभ्यता कर रहें इन्हें इतना साहस कौन देता है?
इन्हें साहस देते हैं हम । जहाँ हम रुक जाते हैं व्यवस्था वहीं डगमगाने लगती है। ऐसी स्थिति में स्त्री दौपद्री नहीं, फूलन देवी के किरदार में आती है । औरतों की स्थिति का यह तो एक उदाहरण है अगर अपने आसपास देखें तो प्रतिदिन ऐसी प्रताड़नाओं से महिलाएं गुज़र रही हैं। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें तो अपने जीवन से जुड़े विचारों को भी वे चार लोगों से पूछ कर ही लेती हैं चाहे वे कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाएं। हम एक ऐसे भारत में रहते हैं जहाँ जय श्री राम और अल्लाह बोलने पर मजबूर किया जाता है ।                                                                                   हम स्वतंत्र है तो राम कहें या रहीम, क्या फर्क पड़ता है? उद्देश्य तो सिर्फ मनुष्य बनने का होना चाहिए । हम मनुष्य हैं क्योंकि हममें मनुष्यता है, कोई पशु है क्योंकि उनमें पशुता है ये भाववाचक संज्ञा हमें समझाती है । अब तो बस कबीर याद आतें हैं कि ‘पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया ना कोई ।’ चारों तरफ अंग्रेजी बोलने की होड़ लगी है बड़े दुःख की बात है कि अपनी भाषा पहचानने वाले कितने हैं? खड़ी बोली को महत्व दिलाने लिए केवल भारतेंदु जी ने ही प्रयत्न नहीं किया था । उसी जोर -शोर से आज भी उतने ही प्रयत्न किए जा रहे हैं । अब प्रश्न ये उठता है कि अपनों के लिए अपनों के ही बीच लड़ाई चल रही है,जैसे भाषा तो अपनी है, चाहे कोई भी भाषा हो। फिर लड़ाई का तो कोई प्रश्न ही नही उठता। जब जन्मभूमि की भाषा बोलने वालों को उसकी अपनी ही भूमि पर तुच्छ समझा जाए तो ऐसा भारत आज़ाद नही।

शुभजिता

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