गिरिजा देवी…जिनके बगैर ठुमरी अकेली और संगीत सूना हो गया

यह सही है कि एक बार गिरिजा देवी से मिलने का मौका मिला है…सौभाग्य रहा उनसे बातें करने और ठुमरी सुनने का…जब बात की थी तो ऐसा लगता था जैसे समुद्र के किनारे खड़े होकर मोती ढूंढना है…और अप्पा तो समुद्र से भी आगे थीं…तो हम मोती चुना…साभार इंटरनेट और वे लेखक जिन्होंने अप्पा की मायानगरी को कलम में उतारकर संगीत और साहित्य दोनों को समृृद्ध किया। गिरिजा देवी को समझने के लिए हमें नहीं लगता कि यतीन्द्र मिश्र की किताब से बेहतर कुछ होगा…आप जो पढ़ रहे हैं…वह उनकी ही रचना है और इसे इंटरनेट से लिया गया  है साभार…

यतींद्र मिश्र

तस्वीर – साभार बीबीसी हिन्दी

गिरिजा देवी के घर में रोजमर्रा के अलाप, तानों से अलग भी एक दुनिया रहती है. कौतूहल एवं आश्चर्य के मिश्रण से बनी दुनिया. पृथ्वी से अलग मंगल पर वायुमंडल का होना परिकल्पना की वस्तु है. गिरिजा देवी के घर में इस दूसरी दुनिया का होना, संशय या परिकल्पना दोनों से अलग, बिल्कुल यथार्थ की चीज़ है.

यह दूसरी दुनिया है क्योंकि मैंने कई बार इसमें अपने को घिरा पाया. यह दूसरी दुनिया है, इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं. यह दूसरी दुनिया न जाने कब तक रहेगी, जिस बात का हिसाब अप्पा के पास भी नहीं. यह अप्पा की मायावी दुनिया है. इस मायानगरी में न जाने कितना जादू भरा है, जितना भी पकड़ो उतना ही सरक जाता हाथ से.

इसको देखते हैं. अलीबाबा की कहानी के सिमसिम की तरह इसको खोलते हैं.

खुल जा सिमसिम-

सिमसिम, रसोई के दरवाजे पर खुलता है.

अप्पा की रसोई में सबकुछ वैसा ही मिला जैसा आम रसोई में होना जाहिए. अलग से काबिलेगौर अगर कुछ है, तो सफाई. उसके साथ अतिरिक्त गौर करने वाली चीज है, गृहस्वामिनी की हिदायतें. वह भी एक-दो नहीं. पूरी विलम्बित हिदायत, एक ताल में निबद्ध. अब शिष्याएं कोई भी राग अलापें, समय तो लगना ही है. सिमसिम की तरह अप्पा के पास एक आतिशी शीशा है, जिसमें से उनको देखने पर वह एक ऐसी औरत में तब्दील नजर आती हैं, जो शिष्याओं को सलीका सिखाने में उतनी ही माहिर हैं, जितनी संगीत ज्ञान कराने में.

चाय बनाओ, गुनगुनाती रहो.
सब्जी काटो, अलंकारो का आकार में अभ्यास चलता रहे.
खाना लगाओ, नयी सिखाई बंदिश के शब्द याद हो जाएं.
नहाओ, तो गाओ.
कपड़े सुखाओ, बिस्तर ठीक करो, गाना बंद न हो, गाती रहें, रियाज चलता रहे.

लब्बोलुबाब यह कि एक-एक जान हजार हिदायतें. हजार हिदायतों का मतलब इतना सीधा कि कलाकार तो बनते-बनते न बनता है इंसान. लेकिन सुगृहिणी और नेक औरत तो बनना पहला ध्येय होना चाहिए हर लड़की का.

आतिशी शीशा, सिमसिम औऱ संगीत सभी मिलजुल कर सुरीले चाक पर जो माया गढ़ते हैं, उससे अप्पा की दूसरी दुनिया का तिलिस्म बढ़ता जाता है. गोया शिष्याएं न हो, मंगल ग्रह की प्राणी हों और अप्पा वह गिरिजा देवी न हों उतनी देर, प्रेमचंद के आदर्शवादी उपन्यासों की सरल भारतीय चरित्र हों.

सिमसिम अब बैठक में खुलता है.

लोग आते हैं, मिलते हैं, जाते हैं.
कुछ रुकते हैं, कुछ को रोका जाता है. बारामासा की तरह बारहों महीनों यही क्रम. शिष्य शिष्याएं सलीके से मेहमानवाज़ी में अभ्यस्त (आखिर रियाज किया है).

करीने से गावतकिया सजता है. आहिस्ते से साज रखा जाता है. अप्पा देखती हैं. टोकती हैं. खुश होती हैं. अपनी बंदिशों पर नाज़ करती हैं और देखते-देखते एक-एक जान में जादू भर देती हैं. ये नये और शालीन कलाकार अपनी-अपनी जादू की छड़ियां लेकर बाहर जाते हैं. बाहर की साधारण दुनिया में अप्पा की दूसरी दुनिया का तिलिस्म मिलाते हैं.

सिमसिम संगीत सभाओं में खुलता है.

तो अप्पा के शिष्य-शिष्याएं अपनी छोटी-छोटी पिटारियों से बड़े दुर्लभ और अनगढ़ रत्न निकालते हैं. साधारण दुनिया को वशीभूत करके अपने मायालोक ले जाते हैं.

सिमसिम बहुत जगह खुला मिलता है.

ऐसी बहुत जगहों पर, रास्तों में, पड़ाव पर आते-जाते सुर बिखरे मिलते हैं. जहां बंद रहता सिमसिम, वहां गिरिजा देवी की दूसरी दुनिया नहीं होगी. ऐसा मेरा नहीं, बहुतों का सोचना है.

अप्पा डांटती हैं
कलाकार बनते हैं.
अप्पा और जोर से डांटती हैं
बेहतर इंसान बनते हैं

सिमसिम की जगह, आतिशी शीशे से अप्पा अपनी मायानगरी को देखती हैं. चुपके से नज़रे उतारती हैं. फिर आश्वस्त होती हैं. शीशा छुपा देती हैं कि सबकी आंखों में न दिख जाए और उसे कोई चुरा न ले.

तिलिस्म बना रहता है.
अप्पा जादूगरनी की तरह हंसती हैं
पता नहीं जादूगरनी की तरह हंसती हैं कि गाती हैं
बिल्कुल किस्से कहानियों वाली जादूगरनी की तरह.

(यतींद्र मिश्र की किताब गिरिजाका एक अंश. किताब वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है.)

 

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