कर्जमाफी किसानों की जरूरत है मगर अब इसका इस्तेमाल हर एक पार्टी चुनावी स्टंट के लिए कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्जमाफी को लेकर एक उलझन की स्थिति बन गयी है। मध्य वर्ग में असन्तोष है और किसान परेशान है, प्रदर्शन हो रहे हैं, सरकारें वायदे कर रही हैं, चुनाव जीत रही हैं मगर किसान के हालात सुधरते नहीं। वरिष्ठ लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की यह पोस्ट किसान और कर्जमाफी को लेकर एक समझ बनाती है। आप भी पढ़ें इस बार सोशल मीडिया से कर्जमाफी क्यों जरूरी है
मिडल क्लास को बड़ा गुरूर है टैक्स देने का। चले तो आख़िरी चवन्नी बचाने लेने वाला यह क्लास किसानों की कर्ज़माफ़ी को लेकर बहुत उछल रहा है मानो उसकी तनख्वाह से पैसा काट के दिया गया है। उसे लगता है देश उसी के पैसे से चलता है तो दुनिया की सारी सुविधा उसी को मिलनी चाहिए। उछल तो वे पूंजीपति भी रहे हैं जो सब्सिडी के बिना दो दिन न टिकें बाज़ार में। वैसे तो किसान भी जब बाज़ार में जाता है तो बिस्कुट से लेकर खाद तक जो खरीदता है सब पर टैक्स देता है लेकिन अभी उसे जाने दीजिये।
पहली बात तो यह कि टैक्स अर्निंग का सबसे बड़ा हिस्सा उन बड़े शहरों की अधिरचना पर ही खर्च होता है जिनमें यह मिडल क्लास रहता है। सड़कें, पार्क, मेट्रो, बिजली, लाइब्रेरी, यूनिवर्सिटी, कॉलेज, सैनिटेशन सबका उपभोग वही करता है। भारी सब्सिडी वाले ईंधन से चलने वाला जहाज़ हो या लागत की तुलना में सस्ती उच्च श्रेणी ट्रेनों की यात्रा वही करता है। उसकी सुरक्षा के लिए पुलिस थाने पर खर्च होता है। जहाँ वह काम करता है वहाँ से मोटी तनख्वाह लेता है और जीवन के अनेक क्षेत्रों में सब्सिडी लेता है.
किसान का जीवन देखिये। आधुनिक अधिरचनाओं से वह वंचित है, सड़कें टूटी फूटी हैं गाँवों की, सैनिटेशन जैसी चीज़ नहीं, पीने का साफ़ पानी नहीं। स्कूल न होने जैसे, हस्पताल की बात ही बेकार. सुरक्षा का जो हाल है वह न पूछिए तो बेहतर। बसें जानवरों को ढोने वाली। तुर्रा यह कि वह जो फ़सल उपजाता है उसका मूल्य ख़ुद नहीं तय करता बल्कि इसी सर्वग्रासी मिडल क्लास के हिसाब से तय किया जाता है। आख़िर प्याज़ या शक्कर का भाव बढ़ने पर सरकार गिर सकती है, कार का बढ़े तो कोई बात नहीं।
कोई इसान क़र्ज़ नहीं लेना चाहता। खेती घाटे में जाती है क्योंकि उपज का सही मूल्य नहीं मिलता उसे, बीमा की व्यवस्था में गड़बड़ी होती है। बेहद सब्सिडाइज्ड अंतर्राष्ट्रीय उत्पाद पर सीमा शुल्क की छूट देकर उससे हमारे किसान का कम्पटीशन कराया जाता है तो विदर्भ जैसे हालात पैदा होते हैं और चाँदी का कटोरा खून का कटोरा बन जाता है, इसलिए अगर की गई क़र्ज़माफ़ी तो यह एहसान नहीं है. उनका हक़ है।
बाक़ी लोकतांत्रिक समाज में टैक्स मूल्य नहीं हैं सुविधाओं के बल्कि राष्ट्र के निर्माण में भागीदारी है और किसान भी राष्ट्र का हिस्सा मज़ेदार यह है कि आजतक यह किसी ने नहीं कहा। दिल्ली में जब पहली बार तमिलनाडु के किसान आये थे तो उन्होंने कहा कि हमें सही मूल्य दे दीजिए हमारे उत्पाद का। कभी कर्ज़माफ़ी की बात नहीं करेंगे। अभी जब फिर से किसान आये तो भी उनकी प्रमुख माँग यही थी कि स्वामीनाथन कमेटी के अनुसार सही मूल्य मिले उत्पाद का। राहुल गांधी ने भी कहा कि कर्ज़माफ़ी कोई हल नहीं है, हल कॉम्प्लेक्स है।
ज़रा देखें कि फसलों के भंडारण की व्यवस्था क्या है? पूरे देश मे एफ सी आई के गोदामों की हालत देख लें ज़रा और फिर उन निजी कंपनियों के भंडार भी जिन्हें लगातार प्रमोट किया गया है। अगर न समझ मे आ रहा हो भंडारण और कृषि उपज मूल्य का रिश्ता तो किसानों से बात कर लें या ज़रा पढ़ लें। जिस समय कृषि उपज आती है बाज़ार में ज़ाहिर है कि उसकी सप्लाई एक साथ आने से मूल्य गिर जाते हैं। बहुत थोड़ा सा हिस्सा एम् एस पी पर बिक पाता है और किसान को बाक़ी औने पौने दाम पर बिचौलियों को बेचना पड़ता है क्योंकि उसके पास भंडारण की सुविधा नहीं। यह सुविधा हो तो वह अपना अनाज़ तब तक भंडार कर सकता है जब तक बाज़ार में डिमांड सप्लाई इक्वेशन ठीक न हो जाएँ। चलते चलते यह भी जान लें कि एम् एस पी सिद्धांत: न्यूनतम समर्थन मूल्य है, एक फ्लोर प्राइस. सरकार बाज़ार भाव इससे नीचे गिरने पर सपोर्ट करने के लिए यह व्यवस्था लेकर आई थी। आदर्श रूप से अधिकतम किसानों को इससे ऊँचा मूल्य बाज़ार में मिलना चाहिए।
उनसे यह भी आग्रह है कि एक बार कृषि के लिए सबसे ज़रूरी अधिरचना “सिंचाई के साधनों” की हालत देख लें और गाँवों में विद्युत् सप्लाई की स्थिति भी. बाक़ी बीज, खाद, दवाई आदि आदि का बाज़ार तो क़स्बों में भी घूमते दिख ही जाएगा। एक लाइन में कहूं तो कृषि के पूरे मार्केटिंग सिस्टम को इसा बनाया गया है कि किसान एक अजीब से दुश्चक्र में फँसता चला गया है। एक तरफ़ लागत मूल्य बढ़ता चला जा रहा है तो दूसरी तरफ़ उत्पाद का सही मूल्य लगातार उससे दूर होता जा रहा है। उसी के उत्पाद से बिचौलिए मज़े करते हैं और बड़े व्यापारी और रईस होते चले जाते हैं।
इसलिए क़र्ज़माफ़ी असल में इस अन्याय का मुआवज़ा है। इसके आगे ज़रूरी तो यही है कि कृषि की पूरी व्यवस्था को लाभकारी बनाने के लिए केंद्र और राज्य के स्तर नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। कृषि भंडारण और कृषि विपणन की व्यवस्था को किसानों के अनुरूप बनाए जाने की ज़रूरत है तो ग़ैर कृषि मौसम में वैकल्पिक रोज़गारों की व्यवस्था कृषि मज़दूरों को सम्मानजनक जीवन जीने तथा पलायन से रोकने में कारगर होगी। एक बार हो ऐसा फिर ज़रूरत पड़ने पर सरकारें किसानों से उधार ले सकेंगी।