– यशपाल
कन्हैया लाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो-तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद ही हुआ था। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिये सप्ताह भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूंछे जो प्रायः ऎसे अवसरों पर पूंछॆ जाए हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये जो अनुभवी लोग नव-विवाहितों को दिया करते हैं।
हेमराज को कन्हैया लाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया- बहू को प्यार तो करना ही चाहिये , पर प्यार में उसे बिगाड़ लेना या सर चढा लेना भी ठीक नहीं है। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्र भर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे रहना ही चाहिये….मारे नहीं तो कम से कम गुर्रा तो जरूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक बात में न भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी या नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाय।…..मैं तो देखकर हैरान रह गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकार कर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया – ‘कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही’, तो भीगी बिल्ली की तरह बोले- ‘अच्छा!’ मर्द को रुपया पैसा अपने हांथ में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऎसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार न हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ‘फिर पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा पढा दिया कि पहले तुम ऎसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो। …..अपनी मर्जी रखना समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ‘गुर्बारा वररोज़े अव्वल कुश्तन’- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ….तुम कहते हो, पढी लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढी लिखी यों भी मिजाज दिखाती हैं।
निःस्वार्थ भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बांध ली थी। सोंचा मुझे बाजार होटल में खाना पड़े या खुद चौका बर्तन करना पड़े तो शादी का लाभ क्या? इसलिये वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।
लाजवन्ती अलीगढ में आठवी जमात तक पढी थी। बहुत सी चीज़ों के शौक थे। कई ऎसी चीज़ों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों या नई ब्याही बहुओं को करते देखकर मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और भाई पुराने खयाल के थे। सोंचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीज़ों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग ऎसा था कि कन्हैया का दिल इन्कार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाय, दो बातें मानकर तीसरी पर इन्कार भी कर देता। लाजो मुंह फुलाती तो सोंचती कि मनायेंगे तो मान जाऊंगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डांट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट फूट कर रोती। फिर उसने सोंच लिया- ‘चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?’ वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हांथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया, तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का सन्तोष अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा और दूसरा कौन सा होगा? इस नशे में राजा देश पर दॆश समेटते जाते थे, जमींदार गांव पर गांव और सेठ बैंक और मिल खरीदते जाते हैं।इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया लाल के हांथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऎसा होने पर वह कई दिन के लिये उदास हो जाती थी। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध नहीं करती, पर मन ही मन सोंचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊं। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हंसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हंसने लगती। सोंच यह लिया था, ‘मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे वह चाहता है वैसे ही मैं चलूं।’ लाजो के सब तरह आधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का सन्तोष पाता।
क्वांर के अन्त में पड़ोस की स्त्रियां करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थी उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहां मायके से रुपये आ गये थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मंगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ‘तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।’
करवे के रुपये आ जाने से लाजो को सन्तोष हो गया। सोंचा भईया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढी कर और लाढ के स्वर में याद दिलाया–‘हमारे लिये सरघी में क्या-क्या लाओगे….?’ और लाजो ने ऎसे अवसर पर लायी जाने वाली चीजे याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मंगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम जनम यही पति मिले, इस्लिये दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढी लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया ने लंच की छुट्टी में साथियों के साथ ऎसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। उसने लाजो को बताया कि सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हांथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस सांझ मुंह लटक ही गया। आंसू पोंछ लिये और बिना बोले चौके बर्तन के काम में लग गई। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुंह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबन्ध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डांट दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऎसा ख्याल आने लगा–इन्हीं के लिये तो व्रत कर रही हूं और यही ऎसी रुखाई दिखा रहे हैं।…..मैं व्रत कर रही हूं कि अगले जनम में भी इनसे ही ब्याह हो और इन्हें मैं सुहा ही नहीं रही हूं…। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऎसे ही सो गई।
तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खड़कने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा–शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियां लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया कि खोये की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोंचा, उन मर्दों को ख्याल है कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी ख्याल नहीं है।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि उसने सरघी में कुछ भी न खाया। न खाने पर पति के नाम पर व्रत कैसे न रखती! सुबह सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत रखने वाली रानी और करवे का व्रत रखने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसर उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुंह सुजाये है। उसने फिर डांटा–‘मालूम होता है दो चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।’
लाजो को और भी रुलाई आ गई। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है! इन्हीं के लिये व्रत कर रही हूं और इन्हीं को गुस्सा आ रहा है।…जन्म जन्म में ये ही मिलें इसी लिये मैं भूखी मर रही हूं।….बड़ा सुख मिल रहा है न ! ….अगले जन्म में और बड़ा सुख दॆंगे!….ये ही जन्म निबाहना मुश्किल हो रहा है। इस जन्म में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जन्म के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूं।…
लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर से पहले ही खाया हुआ था। भूंख के मारे आंते कुड़मुड़ा रही थीं और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जन्म जन्म, कितने जन्म तक उसे यह व्यवहार सहना पड़ेगा! सोंचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आंचल से सिर बांधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई–करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आईं थी। करवा चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियां उपवास करने पर भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने का काम नहीं किया जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई और चरखा छुआ नहीं जाता था। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिये ताश या जुऎ की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी इसी के लिये बुलाने आईं थीं। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गई और फिर सोंचने लगी–ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है। …फिर अपने दुखी जीवन के कारण मर जाने का ख्याल आया और कल्पना करने लगी कि करवा चौथ के दिन उपवास किये हुये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर अगले जन्म में यही पति मिले….
लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोंचने लगी–मैं मर जाऊं तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आयेगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोंनो का ब्याह इन्हीं से होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का ख्याल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने आप समाधान हो गया–नहीं पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊंगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम से मन अधीर हो गया। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोंचा–क्यों मैं अपना अगला जनम बरबाद करूं? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने का मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैया लाल के लिये उसने जो सुबह खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियां कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में करके एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोंचती — यह मैंने क्या किया! ….व्रत तोड़ दिया। कभी सोंचती ठीक ही तो किया, अपना अगला जन्म क्यों बरबाद करूं? ऎसे पड़े पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशन दान से रोशनी की जगह अन्धकार भीतर आ रहा है। समझ गई दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।
कन्हैया लाल ने क्रोध से उसकी ओर देखा-‘अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा।’
लाजो के दुखे दिल पर और चोट लगी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।
कन्हैया लाल का गुस्सा भी उबल पड़ा-‘यह अकड़ है!….आज तुझे ठीक ही कर दूं।’ उसने कहा और लाजो को बांह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हांथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हांफते हुये लात उठाकर कहा, ‘और मिजाज दिखा?.. खड़ी हो सीधी।’
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से नहीं उठी। और मार खाने के लिये तैयार होकर उसने चिल्लाकर कहा, ‘मार ले मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन सा व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल!’
कन्हैया लाल का लात मारने के लिये उठा पांव अधर में ही रुक गया। लाजो का हांथ उसके हांथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुंह में आई गाली भी मुंह में रह गी। ऎसे जान पड़ा कि अंधेरे में कुत्ते के धोखे से जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डांट या मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हांफता हुआ खड़ा सोंचता रहा फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैया लाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो फर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घन्टे भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जला कर कम से कम कन्हैया के लिये तो खाना बनाना ही था। बड़े बेमन से उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैया लाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढक दिया और कमरे के किवाड़ उढकाकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोंच रही थी, क्या मुसीबत है ये ज़िन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी? मैंने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आंसुओं से भीगे चेहरे को आंचल से पोंछने लगी। कन्हैया लाल ने आते ही एक नज़र उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैठ गया। कन्हैया लाल का ऎसे चुप बैठ जाना एक नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई की ओर चली गई। आसन डाल थाली कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे मॆं पानी लेकर हांथ धुलाने के लिये खड़ी थी। जब पांच मिनट हो गये कन्हैया लाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ‘खाना परस दिया है।’
कन्हैया लाल आया तो हांथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अब तक हांथ धुलाने के लिये लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैया लाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया , ‘बस हो गया, और नहीं चाहिये।’ कन्हैया लाल खाकर उठा तो रोज की तरह हांथ धुलाने को न कहकर नल की ओर चला गया।
लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कद्दू की तरकारी बिल्कुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ‘हाय इन्होंने कुछ कहा भी नहीं! यह तो जरा कम ज्यादा होने पर डांट देते थे।’
लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हांथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैया लाल स्वयं बिस्तर झाड़ कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में थी ऎसा कभी नहीं हुआ था।
लाजो ने शर्मा कर कहा, ‘मैं आ गई रहने दो। किये देती हूं।’ और पति के हांथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैया लाल दूसरी तरफ से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधन किया, तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो मैं तुम्हारे लिये दूध ले आऊं।’
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैया लाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने अपनी चीज़ समझा था। आज वह ऎसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी ख्याल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ रही थी अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैया लाल के व्यवहार में एक नर्मी सी आ गई। कड़े बोल की तो बात ही क्या, बल्कि एक झिझक सी हर बात में, जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर दिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म मालूम हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहां तक बन पड़ता, घर का काम उसे नहीं करने देती। प्यार से डांट देती, ‘यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते….।’
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ‘तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।’ कन्हैया पहले कोई पुस्तक या पत्रिका लाता था तो अकेला मन ही मन पढा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढता या खुद सुन लेता। यह भी पूंछ लेता ‘तुम्हें नींद तो नहीं आ रही है?’
साल बीतते मालूम न पड़ा। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनी आर्डर करवे के लिये न पहुंचा था। करवा चौथ से पहले दिन कन्हैया लाल द्फ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ‘भैया करवा भेजना शायद भूल गये।’
क्न्हैया लाल ने सांत्वना के स्वर में कहा, ‘तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। तुम व्रत उपवास के झगड़े में न पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मगाना ही है तो बता दो । लेते आयेंगे। पर व्रत उपवास से होता क्या है। सब ढकोसले हैं।’
‘वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा न भेजा तो न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़ी है।’ लाजो ने बेपरवाही से कहा।
सन्धया-समय कन्हैया लाल आया तो रूमाल में बंधी छोटी गांठ लाजो को थमाकर बोला, ‘लो, फेनी तो मैं ले आया हूं, पर व्रत-व्रत के झगड़े में न पड़ना।’ लाजो ने मुस्कुराकर रुमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार करके कन्हैया को रसोई में पुकारा, ‘आओ, खाना परस दिया है।
कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी का परोसा था- ‘और तुम?’ उसने लाजो की ओर देखा।
‘वाह मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।’ लाजो ने मुस्कुराकर प्यार से बताया।
‘यह बात….! तो हमारा भी व्रत रहा।’ आसन से उठते हुये कन्हैया लाल ने कहा।
लाजो ने पति का हांथ पकड़कर समझाया, ‘क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत करते हैं! ….तुमने सरघी कहां खाई?’ नहीं, नहीं यह कैसे हो सकता है!’ कन्हैया नहीं माना, ‘तुम्हें अगले जन्म में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!’
लाजो पति की ओर कातर आंखो से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था|
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I need summary of this story
ये कहानी यशपाल द्वारा उन दिनों में लिखी गयी है जब महिलाओं को परदे के भीतर रहना पड़ता था और आज की तरह उनको अधिकार हासिल नहीं थे। आप कह सकती हैं कि ये कहानी पति – पत्नी के सम्बन्धों को लेकर समाज ने जो स्टीरियोटाइप गढ़े हैं, उनको तोड़ती है। हेमराज अपने दोस्तों से ये जानता है कि उसको पत्नी को कंट्रोल करना पड़ेगा और वह उनके बहकावे में आकर ऐसा करता भी है। नायिका का प्रतिवाद उस समय में महिलाओं की आवाज को मुखर करता है। इसके साथ ही कहानी उस जमाने में घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज उठाती है। ये कहानी साबित करती है कि यशपाल अपने समय से कितने आगे की बात करते हैं।