हिन्दी के वरिष्ठ कवि -कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार और चित्रकार आदरणीय आलोक शर्मा के 84वें वर्ष -प्रवेश कवि नवल ने यह लेख अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा। वे शतायु हों और स्वस्थ -प्रसन्न रहकर दीर्घ काल तक साहित्य सृजन करते रहें । हम इसे साभार आपको पढ़वा रहे हैं..यह समकालीन साहित्य का दस्तावेज है और एक मित्र की तरफ से एक मित्र को स्नेह भरी सौगात –
आलोक शर्मा : तल्लीनता उनका नैसर्गिक गुण है !
कुछ लोग बहुत देर तक चुप नहीं बैठ सकते । इसका मतलब यह नहीं कि वे वाचाल होते हैं, वरन् कुदरत ने उनके भीतर इतनी ऊर्जा भरी होती है कि वे बिना ख़ुद को अभिव्यक्त किए जी नहीं सकते! यह जिजीविषा उनकी पहचान के साथ जुड़ी होती है।
आलोक शर्मा एक ऐसे अनोखे रचनाकार हैं, जो अपने भीतर के रंगों को बाहर लाने के लिए अलग-अलग कूचियों या विधाओं का इस्तेमाल करते रहते हैं ।
अपने लेखन की शुरुआत उन्होंने एक रहस्य उपन्यास लिखकर की थी, लेकिन जब उनके साहित्यकार मित्रों का दायरा बढ़ा, जिनमें अधिकांश कवि थे, उन्होंने कविता लिखनी शुरू की और देखते –देखते उन्होंने अपना पहला कविता संकलन ” आयाम ” स्वटंकित निकाला और उसकी सिर्फ़ तीस प्रतियाँ तैयार कीं । जिल्दबंदी भी ख़ुद की और हर प्रति का कोलाजनुमा चित्र भी बनाया । उनकी व्यवहारिक बुद्धि ने उन्हें रास्ता सुझाया और उन्होंने आयाम संकलन की प्रतियाँ हिन्दी के शीर्ष रचनाकारों के पास भेज दीं । इस नायाब तोहफ़े को पाकर हर बड़े रचनाकार ने बधाई का उन्हें पत्र लिखा, जिसके अंश उन्होंने अपनी अगली मुद्रित पुस्तक में प्रकाशित भी किए ।
आलोक ने एक संवादहीन गम्भीर नाटक लिखा ” चेहरों का जंगल ” , जिसे सुनकर मोहन राकेश ने कहा था, यह आइडिया तो मैं चुराऊंगा , आलोक !
जब तक चेहरों का जंगल छप कर आता , मोहन राकेश का संवादहीन नाटक छपकर आ गया । मोहन राकेश लिक्खाड़ तो थे ही , आलोक मन मसोस कर रह गए ! इस घटना का ज़िक्र मनमोहन ठाकौर साहब ने अपनी आत्मकथा ” अन्तरंग ” में किया है ।
अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का आलोक को ज़बरदस्त अभ्यास है। एक ज़माने में जब वे काॅफ़ी हाउस आते तो काॅफ़ी पीते-बातें करते खाली सिगरेट के पैकेट से कभी ऊँट, कभी घोड़ा, कभी गधा , कभी जिराफ़ बनाया करते । गधा-घोड़ा बनाने में उनकी तल्लीनता इतनी अधिक होती थी कि वे काॅफ़ी पीना भूल जाया करते । काॅफ़ी हाउस के बैरे उनके प्रशंसक तो थे ही , सिगरेट के पैकेट से बनी उनकी कलाकृति को वे सँभाल कर रखते और अगले दिन उनको ही भेंट में नज़र करते !
अपने पहले टंकित-अंकित कविता संग्रह आयाम की वजह से तत्कालीन हिन्दी रचनाकारों के बीच वे अपनी पहचान तो बना ही चुके थे, अपने संवादहीन नाटक ” चेहरों का जंगल ” के ज़रिए बंगाली रंगकर्मियों के बीच भी प्रसिद्ध हो गए , जिनमें शंभु मित्र और ऋत्विक घटक अधिक उल्लेखनीय हैं ।
यह तल्लीनता उनका नैसर्गिक गुण है। वे किसी भी काम में हाथ लगाकर उसे अधूरा नहीं छोड़ते । वे अपने आप में इतना रमे होते हैं कि उन्हें बाहर की दुनिया में कदम रखने में कुछ वक्त लग ही जाता है । अक्सर वे दूसरों की बातों को उतने मनोयोग से सुन नहीं पाते क्योंकि वे ख़ुद के मोनोलाॅग में चले जाते हैं यानी उनकी चुप्पी सही माने में चुप्पी नहीं होती । एक अनभिव्यक्त संवाद उनके भीतर चलता रहता है ।
आलोक अनन्त ऊर्जा के मालिक हैं और उसी ऊर्जा के कारण बहुआयामी कल्पना के स्वामी भी । मैंने आज तक ऐसा ऊर्जावान व्यक्ति नहीं देखा जो सोते-जागते कुछ-न-कुछ करता रहता हो!
पिछले दिनों अपनी किसी कविता को सुनाने से पहले उन्होंने एक टिप्पणी की कि यह कविता स्वप्न में लिखी थी । ‘ लिखी थी ‘ से लोगों को उनके जागने का भ्रम हो सकता है । वे कहना यह चाहते थे कि उन्होंने स्वप्न में ख़ुद को कविता लिखते हुए देखा और स्वप्न -भंग होने पर उसे काग़ज़ पर लिपिबद्ध किया ।
उनकी स्मरणशक्ति भी अद्भुत है और किस्सा सुनाने की शैली भी वैसी ही मोहक । कविता या गद्य सुनाते वक्त वे एक सम्मोहन रचते हैं और यह स्वभाव उन्हें प्रकृति से वरदान के रूप में मिला है ।
अपने अतीन्द्रिय जगत में नख-शिख डूबे आलोक अवचेतन मन के सिद्ध कलाकार हैं, जिनका वाह्य जगत से सिर्फ़ इतना नाता है कि उनका एक शरीर है, शरीर से बँधे कुछ कर्म हैं, कुछ रिश्ते हैं, जिनका निर्वाह करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन शायद पूरा न्याय नहीं कर पाते!
स्वभावतः आलोक शर्मा प्रयोगधर्मा कवि हैं । लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वे ऐसा नया भी कुछ कर गुज़रते हैं कि वे हास्यास्पद दीखने लगें, लेकिन इस बात की चिन्ता उन्हें नहीं होती । एक ज़माने में उन्होंने पण्डितराज जगन्नाथ पर थीसिस लिखनी शुरू कर दी, जबकि उनकी स्कूली शिक्षा तब तक किसी तरह से ले-दे कर मैट्रिकुलेशन तक थी ।
उनका अवचेतन उनको हमेशा कन्ट्रोल करता रहता है और यही उनके लेखन का महत्वपूर्ण बिन्दु है । यह बिन्दु उन्हें अनेक स्तरों पर उद्वेलित किये रहता है जैसे कोई कुम्भकार नये-नये बर्तन , खिलौने या कभी -कभी बेतुके आकार तक उगलता रहता है ।
प्रकृति -बिम्बों से उनका गहरा रिश्ता इसलिए भी बन पाया कि उनके आरम्भिक जीवन की ग्रामीण स्मृतियाँ उनके पास सुरक्षित रह पायीं । यह स्मृति -सम्पदा आलोक शर्मा के पूरे व्यक्तित्व की अथाह पूँजी है ।
अभी हाल ही में उनका एक नया उपन्यास आया है ” उनकी ज़िन्दगी के दिन” जिसकी पृष्ठभूमि उनके मन में बस रहे किसी गाँव पर आधारित है ।
हिन्दी का पहला बैले “एक पंछी की हत्या ” और विश्व के कुछ महान कवियों की कविताओं की अनुवाद- पुस्तक भी पिछले दिनों ही प्रकाशित हुई है । इसी संग्रह में आलोक जी ने अपनी कुछ चुनी हुई कविताएँ इसलिए दीं ताकि पाठक विश्व -स्तर के कवियों के साथ हिन्दी कविता का भी रसास्वादन कर सकें !
अपराजिता की तरफ से कवि को जन्मदिन की हार्दिक बधाई व नवल सर के साथ आपकी मित्रता यूँ ही बनी रहे,
(आलेख कवि नवल सर की फेसबुक वॉल से और तस्वीर नीलांबर की वॉल से)