देश का महिला एवं बाल विकास मंत्रालय चाहता है कि नसबंदी योजना में पुरुषों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी हो। मंत्रालय ने महिलाओं के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय नीति में इस प्रस्ताव को शामिल कराया है। 1970 में आपातकाल के समय संजय गांधी के इस विवादित कदम के बाद पहली बार किसी सरकार ने ऐसा प्रस्ताव लाया है। अधिकारियों का तर्क है कि पुरुषों में परिवार नियोजन की जिम्मेदारी डालने के लिए इस तरह का कदम उठाना जरूरी है।
मेनका गांधी के मंत्रालय का कहना है कि इस तरह का कदम महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा। मंत्रालय के अनुसार देश में महिला नसबंदी बढ़ रही है, जबकि पुरुष नसबंदी न के बराबर है।
स्वास्थ्य मंत्रालय का 2015 का सर्वे बताता है कि 1986-87 में आठ लाख के करीब पुरुषों की नसबंदी की गई, मगर 2014-15 में यह संख्या एक लाख से भी कम रही। इसके उलट 1980-81 में एक लाख से कम महिलाओं की नसबंदी की गई, जबकि 2014-15 में यह संख्या चार लाख के करीब रही। वहीं, 2010-11 में चार लाख से ज्यादा महिलाओं की नसबंदी की गई।
युक्त राष्ट्र आबादी संभाग के अर्थशास्त्र एवं सामाजिक मामलों के विभाग की रिपोर्ट कहती है कि किसी भी देश के मुकाबले भारत का परिवार नियोजन महिला नसबंदी पर ज्यादा निर्भर करता है। अध्ययन बताता है कि पुरुष कंडोम समेत परिवार नियोजन के तमाम उपाय के मुकाबले सबसे ज्यादा निर्भरता महिला नसबंदी पर है।
भ्रम के कारण पुरुष नहीं कराते नसबंदी
विशेषज्ञों के मुताबिक समाज के अंदर भ्रामक प्रचार और मानसिकता की वजह से भी पुरुष नसबंदी जोर नहीं पकड़ रही है। समाज के अंदर ऐसी बातें फैला दी गई हैं कि पुरुषों में नसबंदी के बाद उनकी मर्दानगी या काम करने की क्षमता कम हो जाएगी। प्रोफेसर इम्तियाज अहमद कहते है कि पुरुषों में नसबंदी का प्रस्ताव बहुत संवेदनशील है। इसे जल्दबाजी में लागू करना खतरनाक हो सकता है। लिहाजा, ऐसा कदम उठाने से पहले समाज में जागरूकता फैलाना बहुत जरूरी है।