आरा भारत के बिहार का एक प्रमुख शहर है। यह भोजपुर जिले का मुख्यालय है। राजधानी पटना से इसकी दूरी महज 55 किलोमीटर है। देश के दूसरे भागों से ये सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। यह नगर वाराणसी से 136 मील पूर्व-उत्तर-पूर्व, पटना से 37 मील पश्चिम, गंगा नदी से 14 मील दक्षिण और सोन नदी से आठ मील पश्चिम में स्थित है। यह पूर्वी रेलवे की प्रधान शाखा तथा आरा-सासाराम रेलवे लाइन का जंकशन है। डिहरी से निकलनेवाली सोन की पूर्वी नहर की प्रमुख ‘आरा नहर’ शाखा भी यहाँ से होकर जाती है। आरा को 1865 में नगरपालिका बनाया गया था।
गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र तथा वितरणकेंद्र है। रेलों और पक्की सड़कों द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से संबद्ध है। बहुधा सोन नदी की बाढ़ों से अधिकांश नगर क्षतिग्रस्त हो जाता है।
अरण्यदेवी मंदिर
आरा, भोजपुर, बिहार मुख्यालय स्थित ऐतिहासिक आरण्य देवी मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। दूर-दूर से श्रद्धालु पूजा-अर्चना के लिए जुटते है। संवत् 2005 में स्थापित आरण्य देवी का मंदिर नगर के शीश महल चौक से उत्तर-पूर्व छोर पर स्थित है। यह नगर की अधिष्ठात्री मानी जाती है। बताया जाता है कि उक्त स्थल पर प्राचीन काल में सिर्फ आदिशक्ति की प्रतिमा थी। इस मंदिर के चारों ओर वन था। पांडव वनवास के क्रम में आरा में ठहरे थे। पांडवों ने आदिशक्ति की पूजा-अर्चना की। मां ने युधिष्ठिर को स्वपन् में संकेत दिया कि वह आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित करे। धर्मराज युधिष्ठिर ने मां आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित की। कहा जाता है कि भगवान राम जी, लक्ष्मण जी और विश्वामित्र जी जब बक्सर से जनकपुर धनुष यज्ञ के लिए जा रहे थे तो आरण्य देवी की पूजा-अर्चना की। तदोपरांत सोनभद्र नदी को पार किये थे। बताया जाता है कि द्वापर युग में इस स्थान पर राजा मयूरध्वज राज करते थे। इनके शासनकाल में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ यहां आये थे। श्रीकृष्ण ने राजा के दान की परीक्षा लेते हुए अपने सिंह के भोजन के लिए राजा से उसके पुत्र के दाहिने अंग का मांस मांगा। जब राजा और रानी मांस के लिए अपने पुत्र को आरा (लकड़ी चीरने का औजार) से चीरने लगे तो देवी प्रकट होकर उनको दर्शन दी थीं।
इस मंदिर में स्थापित बड़ी प्रतिमा को जहां सरस्वती का रूप माना जाता है, वहीं छोटी प्रतिमा को महालक्ष्मी का रूप माना जाता है। इस मंदिर में वर्ष 1953 में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुधन् व हनुमान जी के अलावे अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापित की गयी थी।
इतिहास – आरा एक अति प्राचीन शहर है। पहले यहां मयूरध्वज नामक राजा का शासन था। महाभारतकालीन अवशेष यहां के बिखरे पड़े हैं। ये ‘आरण्य क्षेत्र’ के नाम से भी जाना जाता था। यहां का आरण्य देवी बहुत प्रसिद्ध है।
आरा अति प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। इसकी प्राचीनता का संबंध महाभारतकाल से है। पांडवों ने भी अपना गुप्त वासकाल यहाँ बिताया था। जेनरल कनिंघम के अनुसार युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित कहानी का संबंध, जिसमें अशोक ने दानवों के बौद्ध होने के संस्मरणस्वरूप एक बौद्ध स्तूप खड़ा किया था, इसी स्थान से है। आरा के पास मसाढ़ ग्राम में प्राप्त जैन अभिलेखों में उल्लिखित ‘आरामनगर’ नाम भी इसी नगर के लिए आया है। पुराणों में लिखित मयूध्वज की कथा से भी इस नगर का संबंध बताया जाता है। बुकानन ने इस नगर के नामकरण में भौगोलिक कारण बताते हुए कहा कि गंगा के दक्षिण ऊँचे स्थान पर स्थित होने के कारण, अर्थात् आड या अरार में होने के कारण, इसका नाम ‘आरा’ पड़ा। 1859 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रतायुद्ध के प्रमुख सेनानी कुंवर सिंह की कार्यस्थली होने का गौरव भी इस नगर को प्राप्त है। आरा स्थित ‘द लिटल हाउस’ एक ऐसा भवन है, जिसकी रक्षा अंग्रेज़ों ने 1857 के विद्रोह में कुंवर सिंह से लड़ते हुए की थी।
कहते हैं कि अरण्य मंदिर से भक्त कभी खाली हाथ नहीं लौटते, यही वजह है कि अरण्य मंदिर में मां के दर्शन हेतु सिर्फ भोजपुर से ही नहीं, बल्कि प्रदेश के दूर दराज के हिस्सों से भी भक्त यहां पहुंचते हैं। आरा के शीश महल चौक से उत्तर-पूर्व छोर पर स्थित मां का इस मंदिर की स्थापना 2005 में हुई थी। मंदिर में स्थापित मां नगर की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। इस ऐतिहासिक मंदिर के बारे में कई धारणाएं और मान्यताएं हैं। इसी मंदिर वाले स्थान पर प्राचीन काल में सिर्फ आदिशक्ति की प्रतिमा थी। इस मंदिर के चारों ओर वन था। पांडव वनवास के क्रम में आरा में ठहरे थे। पांडवों ने आदिशक्ति की पूजा-अर्चना की। मां ने युधिष्ठिर को स्वप्न में संकेत दिया कि वह आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित करे। धर्मराज युधिष्ठिर ने मां आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित की।
आरण्य देवी मंदिर में भगवान राम ने की थी पूजा
कहा जाता है कि भगवान राम , लक्ष्मण और विश्वामित्र जब बक्सर से जनकपुर धनुष यज्ञ के लिए जा रहे थे तो आरण्य देवी की पूजा-अर्चना की। इसके बाद ही सोनभद्र नदी को पार किए थे। द्वापर युग में इस स्थान पर राजा मयूरध्वज राज करते थे। इनके शासनकाल में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ यहां आये थे। श्रीकृष्ण ने राजा के दान की परीक्षा लेते हुए अपने सिंह के भोजन के लिए राजा से उसके पुत्र के दाहिने अंग का मांस मांगा। जब राजा और रानी मांस के लिए अपने पुत्र को आरा (लकड़ी चीरने का औजार) से चीरने लगे तो देवी प्रकट होकर उनको दर्शन दी थीं। इस मंदिर में स्थापित बड़ी प्रतिमा को जहां सरस्वती का रूप माना जाता है, वहीं छोटी प्रतिमा को महालक्ष्मी का रूप माना जाता है।
आरण्य देवी की हैं दो बहनें
आरण्य देवी की मूर्तियां काले पत्थर की हैं। एक मूर्ति 4½ फुट ऊंची है और दूसरी 3½ फुट ऊंची है। यह कहा जाता है कि दोनों बहनें हैं। वे पीले रंग की साड़ी में उनके सिर पर फूल माला और मुकुट के साथ सज रही हैं। आरण्य देवी की दाहिने तरफ के मंदिर में राधा और कृष्ण की मूर्तियां हैं । इस मंदिर में वर्ष 1953 में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुधन् व हनुमान जी के अलावे अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापित की गयी थी। ऐतिहासिक आरण्य देवी मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगातार बढ़ती ही जा रही है। यहां दूर-दूर से श्रद्धालु पूजा-अर्चना के लिए जुटते है।
यहाँ है पुरातात्विक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण महाभारत कालीन प्राचीन कुण्डवा शिवमंदिर मगर आज भी उपेक्षित है
हिन्दुओ के धार्मिक आस्था का केंद्र प्रखंड के प्राचीन कुण्डवा शिवमंदिर(कुडवा शिवमंड)।पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोंण से काफी महत्वपूर्ण। अपने अद्भुत शिल्पकला एवं बेहतरीन कारीगरी के कारण मंदिर को किंदवंतियो के अनुसार महाभारतकालीन होने का गौरव प्राप्त है।मंदिर की बनावट ही इसे पुरातन मंदिरों की श्रेणी में खड़ा करती है।
प्राचीन शिवमंदिर होने के कारण शिवरात्रि पर्व पर या सोमवार को दर्शनार्थियों की भारी भीड़ होती है। कुण्डवा शिवमंदिर भोजपुर जिला मुख्यालय से करीब 30 किमी पश्चिम आरा-बक्सर मुख्यमार्ग एनएच 84 से बिल्कुल सटे उतर दिशा में बिलौटी एवं शाहपुर के बीच अवस्थित है।यह प्राचीन शिवमंदिर कब बना इसका कोई लिखित प्रमाण तो नही मिलता,परंतु लोक गाथाओं,किंदवंतियो, बनावट, स्थापत्यकलाकृतियों से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह मंदिर महाभारत कालीन राजाओ द्वारा बनवाया गया हो।ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण यह मंदिर समुचित व्यवस्था एवं प्रोत्साहन के आभाव में ऐतिहासिक धरोहर की ओर आजतक पुरातत्ववेत्ताओं का ध्यान आकर्षित नही कर पाया।
वनकुंड की खुदाई में मिला शिवलिंग का आकार गोलाकार न होकर चपटा है जिसे बाणासुर ने स्थापित किया था । वर्तमान में मंदिर का अवशेष एक आयताकार झाड़ीनुमा ऊंचे टीले पर अवस्थित है जिसका क्षेत्रफल लगभग 5 एकड़ में फैला हुआ है। यह भूखंड टीले के बीचोबीच उतर दिशा की तरफ प्राचीन प्रधान शिवमंदिर अवस्थित है। सतह पर मंदिर लगभग 30 फिट लंबी 10 फिट चौड़ी है।करीब 30 फीट ऊंचे गुम्बज वाले इस मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिम की तरफ खुलता है जो अमूमन आम शिवमंदिरो से इसे भिन्न करता है।
मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग गोलाकार लंबा न होकर चपटा है।किंदवंतियो के अनुसार यह शिवलिंग मंदिर के पास के तालाब(कुंड) से प्राप्त हुआ था। बताया जाता है कि महाभारत कालीन असुरो का राजा वाणासुर यही आकर गंगानदी के मुख्यधारा के किनारे तपस्या करता था।तपस्या करने के उपरांत उसने यज्ञ करने की ठानी तथा यज्ञ के लिए हवन कुंड की खुदाई होने लगी। हवन कुंड के खुदाई के दौरान श्रमिकों का फावड़ा(कुदाल) किसी ठोस आधार से टकराया जिसके बाद इस कटे शिवलिंग जो कुदाल से कटने के बाद चपटे आकार के इस शिवलिंग को वाणासुर द्वारा मंदिर बनवाकर स्थापित किया गया। इस प्राचीन शिवमंदिर के समीप दीवार के सहारे कई प्राचीन टूटी फूटी मुर्तिया टीकाकार रखी गई है।काले पत्थरों से बनी यह मूर्तियाँ कृषकों द्वारा समय-समय पर कृषि कार्य हेतु खुदाई के दौरान प्राप्त हुई है।
मूर्तियों की बनावट से इसकी प्राचीनतम होने का एहसास होता है।इस मंदिर का आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि इसे बनाने में ईट का प्रयोग नही हुआ है।यह मंदिर वृहद शिलाखंडों को काटकर बनाया गया है। यद्यपि की यहाँ करीब 100 किमी तक पहाड़ का नामोनिशान नही है तो इतने बड़े शिलाखंडों को यहां तक कैसे लाया गया होगा।मंदिर की शिलाखंडों पर उकेरी गई कलाकृतियों को तत्कालीन कारीगरों की काबलियत को दर्शाता है।