भगवान और उनके भक्तों के बीच सदियों से ही एक अटूट रिश्ता देखने को मिला है। यह एक ऐसे बंधन की डोर है जो विश्वास के धागे में बंधी है। कुछ ऐसा ही रिश्ता देखने को मिलता है सिख धर्म के दसवें गुरु ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह जी’ और उनकी संगत (भक्तों) में। कहते हैं एक बादशाह होते हुए भी अपनी संगत के लिए कुछ भी कर जाने का जज़्बा रखते थे गुरु गोबिंद सिंह जी।
सिख धर्म की स्थापना पहले गुरु ‘गुरु नानक देव जी’ ने की थी परंतु सिखों को ‘सिंह’ उनके दसवें गुरु, ‘गुरु गोबिंद सिंह’ ने बनाया था। गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर, 1666 में सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी के घर पटना (बिहार) में हुआ था। उनका विवाह माता सुंदरी जी से महज 11 साल की उम्र में 1677 में हुआ था।
गुरु जी के चार साहिज़ादे (पुत्र) थे जिनमें से बड़े दो पुत्र (अजीत सिंह और जुह्गार सिंह) युद्ध में शहीद हुए और छोटे दो पुत्रों (जोरावर सिंह और फतहि सिंह) को मुगलों ने ज़िंदा दीवार में चिनवाया था। इस महान शहीदी के बाद ही सिख धर्म इन चार साहिबज़ादों के नाम के आगे ‘बाबा’ लगाकर उनका सम्मान करते हैं।
कहते हैं गुरु गोबिंद सिंह बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई और तलवारबाज़ी में कुशल थे। महज़ 10 वर्ष की उम्र में अपने पिता की शहीदी के बाद उन्हें राजा की गद्दी पर बैठा दिया गया था। गुरु गोबिंद सिंह के लिए उनके सिख ‘सिंह’ (शेर) के समान थे, वह शेर जो ना किसी से डरते हैं और ना ही घबराते हैं। सिख धर्म को वर्षों पहले यह पहचान गुरु गोबिंद सिंह द्वारा एक अलग ही अंदाज़ में दी गई थी, जो इतिहास में कभी नहीं देखी गई थी।
13 अप्रैल, 1699, बैसाखी के पर्व का दिन, गुरु जी ने इस दिन के लिए एक खास दीवान (कीर्तन समारोह) आयोजित कराने का आदेश दिया और साथ ही कहा, “मेरी प्यारी संगत से कह दो कि मैं उनसे एक खास बात भी करना चाहता हूं।“ वर्तमान पंजाब में स्थित, आनंदपुर साहिब के ‘केशगढ़’ किले में जहां दूर-दूर से संगतों का हुजूम आया।
सब गुरु जी के दर्शन करने के लिए एकत्रित हो गए। लेकिन साथ ही सबके मन में एक सवाल भी था, कि आखिरकार ऐसी क्या बात है जो इस वर्ष गुरु जी ने इतना बड़ा समारोह आयोजित कराया है। रीति अनुसार दीवान सजाए गए और फिर कीर्तन समाप्त होते ही गुरु जी संगत के सामने प्रस्तुत हुए और उनका स्वागत किया। अपने एक बुलावे पर संगतों की इतनी बड़ी संख्या देखकर गुरु जी को बेहद खुशी हुई।
वे आगे बढ़े, म्यान में से अपनी तलवार निकाली और नंगी तलवार लेकर मंच के बीचो-बीच जाकर बोले, “मेरी संगत मेरे लिए सबसे प्यारी है। मेरी संगत मेरी ताकत है, मेरा सब कुछ है। लेकिन क्या आप सब में से ऐसा कोई है, जो अभी, इसी वक्त मेरे लिए अपना सिर कलम करवाने की क्षमता रखता हो?”
संगत में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया, किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अचानक गुरु जी नी ऐसी बात क्यों की। गुरु जी फिर बोले, “क्या है कोई ऐसा मेरा प्यारा, जो मुझे अपना सिर दे सके? यह तलवार खून की प्यासी है। है कोई ऐसा जो इसी क्षण मेरी इस मांग को पूरा कर सके?”
गुरु जी की आवाज़ मानो एक गूंज की तरह वातावरण में फैल गई, लेकिन अभी भी ऐसा कोई ना था जो उनके इस सवाल का जवाब देने के लिए आगे आया हो। परंतु अगले ही क्षण भीड़ में से एक आवाज़ आई। वो आवाज़ ‘दया राम’ की थी। लाहौर के खत्री परिवार का दया राम गुरु गोबिंद सिंह जी का परम भक्त था।
वह आगे बढ़ा और बोला, “गुरु जी, आपके लिए मेरी जान कुर्बान है। यह जीवन आप ही का दिया हुआ है, तो इसे चलाने या खत्म करने का अधिकार भी आपको ही है।“ गुरु जी खुश हुए और दया राम को अपने पास बुलाया। वे दोनों तम्बू के पीछे गए और कुछ देरे बाद अकेले गुरु जी ही बाहर आए।
गुरु जी की नंगी तलवार में ताज़ा खून की बूंदें टपक रही थी। खून से लथपथ तलवार देख कर लोगों में भय की चिंगारी दौड़ पड़ी, परंतु कोई भी अपनी जगह से ना उठा। गुरु जी फिर बोले, “एक और कुर्बानी चाहिए। है कोई संगत में से कोई, जो आगे बढ़कर अपना सिर कुर्बान कर सके?” इस बार हस्तिनापुर के चमार वर्ग का धर्म दास आगे बढ़ा।
गुरु जी उसे भी लेकर तम्बू के पीछे चले गए और फिर कुछ देर बाद खून से रंगी तलवार लेकर अकेले ही बाहर निकले। यह देख लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। कुछ लोग आपस में बात करने लगे। कहने लगे कि क्या सच में गुरु जी ने उन दोनों को मार दिया? लेकिन गुरु जी ने ऐसा क्यों किया?
सवाल सब के मन में थे लेकिन कोई भी आगे आकर गुरु जी से यह पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, क्योंकि संगत को एक विश्वास यह भी था कि गुरु जी तो परमात्मा हैं। और परमात्मा कभी भी अपने श्रद्धालुओं का बुरा नहीं करते। अब गुरु जी ने तीसरे सिर की मांग की। यह सुन लोग हैरान थे कि आखिरकार गुरु जी कर क्या रहे हैं।
इस बार मोहकम चंद खड़े हुए जो कि एक साधारण दर्जी थे और द्वारका के निवासी थे। वह भी गुरु जी के साथ तम्बू के पीछे गया लेकिन बाहर नहीं आया। इसके बाद गुरु जी ने दो और सिरों की मांग की, जिसके अनुसार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय और बिदर (महाराष्ट्र) के साहिब चंद आगे बढ़े।
पांच सिर की मांग पूरी करने के बाद गुरु जी वापस तम्बू के अंदर चले गए। मान्यता है कि गुरु जी जब तम्बू के पीछे पहुंचे तो उन्होंने उन पांच सिखों पर पवित्र अमृत छिड़का और उनमें जान डाली। बाहर बैठी संगत परेशान थी कि गुरु जी कब से अंदर गए हैं लेकिन अब तक बाहर नहीं आए। परंतु कुछ देर बाद का दृश्य देख लोगों को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
केसरिया रंग के लिबास में पांच नौजवान हाथों में हाथ डाले बाहर आ रहे थे। उनके सिर पर सुंदर केसरिया रंग की एक ही प्रकार की पगड़ी बंधी हुई थी। पांचों लोगों के साथ गुरु जी भी ठीक उसी प्रकार की वेशभूषा में बाहर निकले। यह वही पांच नौजवान थे, जिन्होंने कुछ देर पहले ही गुरु गोबिंद सिंह के कहने पर अपने सिर की कुर्बानी दी थी।
परंतु अब वह बिलकुल सही सलामत नज़र आ रहे थे और केसरिया लिबास में बेहद आकर्षक लग रहे थे। पांच नौजवानों के साथ गुरु जी मंच के बीचो-बीच पहुंचे और बोले, “सिख धर्म को अपने पंज प्यारे मिल गए हैं।“
गुरु जी ने अपने हाथ में लोहे का एक कटोरा लिया। उसमें साफ जल (पानी) भरा और माता जीतो जी को कुछ पताशे (चीनी) लाने के लिए आग्रह किया। गुरु जी ने जल में पताशे डाले और उसे एक दो-धारी छोटी सी किरपान (तलवार) से मिलाया। इस तरह से सिख धर्म का पवित्र ‘अमृत’ तैयार हुआ।
अब गुरु जी द्वारा पंज प्यारों को आगे आने के लिए निवेदन किया गया। वे आगे बढ़े और नीचे झुककर अपने दोनों हाथ आगे किए। गुरु जी ने एक-एक प्यारे को अमृत छकाया (पिलाया) और उन्हें खालसा पंथ के पंज प्यारे निर्धारित किया। फिर गुरु जी ने उन्हीं पंज प्यारों के हाथ से स्वयं आगे झुककर अमृत पीया। इतिहासनुसार गुरु जी द्वारा अमृत छ्काने से पहले पंज प्यारों को पांच ककार (कड़ा, केश, कंघा, किरपान और कछहरा) भी अर्पित किए गए थे।
पंज प्यारों के सामने गुरु जी को यूं झुकता हुआ देख सारी संगत चकित रह गई। गुरु जी द्वारा निभाए गए इस वाकए को सिख संगत में ‘वाहो वाहो गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला’ वाक्या से उच्चारित किया जाता है। इसका अर्थ है – गुरु गोबिंद सिंह ही गुरु हैं और समय आने पर वही अपने पंज प्यारों के चेला (आज्ञा का पालन करने वाले) भी हैं”।
यह केवल कहने की बात नहीं है। मान्यता है कि गुरु गोबिंद सिंह के पंज प्यारों को स्वयं गुरु जी द्वारा ही कुछ अधिकार प्रदान किए गए थे। गुरु जी की अनुपस्थिति में सिख धर्म से जुड़ी बड़ी-छोटी गतिविधियों की देख-रेख इन्हीं पंज प्यारों के हाथ में सौंपी गई।
गुरु जी की अनुपस्थिति में यह पंज प्यारे गुरु जी के बराबर ही आदेश देने के हकदार बनाए गए। केवल गुरु गोबिंद सिंह के ना होने पर ही नहीं, बल्कि समय आने पर आपसी सलाह से यह पंज प्यारे खुद गुरु गोबिंद सिंह को भी आदेश देने का अधिकार रखते थे।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण चमकौर की गढ़ी के युद्ध के दौरान देखा गया था, जब मुगलों की बड़ी फौज के सामने मुट्ठी भर सिखों को देख पंज प्यारों को गुरु गोबिंद सिंह और सिख धर्म के भविष्य की चिंता सताने लगी। तब गुरु जी स्वयं युद्ध के मैदान में उतरने को तैयार थे, परंतु पंज प्यारों ने उन्हें रोका और उनके अधिकार का इस्तेमाल किया।
उन्होंने गुरु जी से चमकौर का किला छोड़ जाने के लिए विनम्रतापूर्वक निवेदन किया। पंज प्यारों का हुक्म गुरु जी किसी भी हाल में नकार नहीं सकते थे, इसलिए गुरु जी मान तो गए लेकिन जाते-जाते शेर की दहाड़ के बराबर मुगलों के लिए एक गूंज छोड़कर गए।
एक राजा का बाणा (पहनावा) छोड़ एक साधारण व्यक्ति का लिबास धारण कर जब गुरु से किले से बाहर निकल रहे थे तो उन्होंने दुश्मनों के लिए एक संदेश छोड़ना सही समझा। वे बोले, “हिन्द का पीर जा रहा है, कोई रोक सके तो रोक लो।“ यह कहकर गुरु जी माछीवाड़े के जंगल की ओर निकल गए।
आज इतने वर्षों बाद भी सिख संगत में बैसाखी का पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है। जगह-जगह कीर्तन समारोह आयोजित किए जाते हैं और गुरुद्वारों में अमृत छकाने का आयोजन भी किया जाता है। गुरु जी द्वारा सजाए गए पंज प्यारे जो पहले तो अलग-अलग जाति के थे, उन्हें ‘सिंह’ की उपाधि देकर सिख बनाया गया।
अब वे पंज प्यारे ‘भाई दया सिंह’, ‘भाई धर्म सिंह’, ‘भाई हिम्मत सिंह’, ‘भाई मोहकम सिंह’ और ‘भाई साहिब सिंह’ के नाम से जाने जाते हैं। सिख धर्म के प्रत्येक पर्व में नगर कीर्तन के दौरान, जिसे ‘गुरुपर्व’ भी कहा जाता है, उनमें गुरु ग्रंथ साहिब की सुंदर पालकी के आगे इन पंज प्यारों को जगह दी जाती है।
(साभार – स्पीकिंग ट्री से गुलनीत कौर का आलेख)