क्रांतिकारी, लेखक और पत्रकार राधा मोहन गोकुल

– शिवशरण त्रिपाठी

राधा मोहन गोकुल जी के बारे में नई पीढ़ी के लोग बहुत कम ही जानते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि नई पीढ़ी के पत्रकारों को भी उनके बारे में या तो कुछ पता ही नहीं है या तो बहुत ही कम पता है। राधा मोहन जी एक क्रांतिकारी, लेखक व पत्रकार के साथ ही सनातनी, आर्य समाजी तो थे ही कांग्रेसी व साम्यवादी होने के साथ समाज सुधारक भी थे।
राधा मोहन गोकुल एक ऐसा नाम है जिसे देश की नई पीढ़ी को जानना चाहिये, पढ़ना चाहिये और समझना चाहिये। वास्तव में वह एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। ईश्वर ने जितना उन्हें कष्ट पहुंचाया उतने ही वह दृढ़ निश्चयी बने, उतने ही फौलादी बने, उतने ही तपकर लोगों के प्रेरणास्रोत व आदर्श बने। एक बारगी ‘राधा मोहन गोकुल’ नाम ही समझ में नहीं आता। देश के कुछ राज्यों खासकर गुजरात, महाराष्ट्र आदि में पुत्र के साथ पिता का नाम जोड़े जाने की परम्परा है पर उनका तो इन राज्यों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। उनके पूर्वज राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर के (तत्कालीन राज्य) के खेतड़ी नामक स्थान से आकर उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद जनपद में आ बसे थे और वहीं उनका जन्म हुआ था। यह समझ से परे है कि उनका नाम राधा मोहन से राधा मोहन गोकुल कैसे हो गया। बहुत सम्भव तो यही प्रतीत होता है कि उन्होंने स्वयं अपने नाम राधा मोहन के साथ अपने पिता जी गोकुल चन्द के नाम से गोकुल शब्द जोड़ लिया था। वह वैश्य बिरादरी से थे और उनके परबाबा लाला परमेश्वरीदास आजीविका की तलाश में कोई ढाई-तीन सौ वर्षों पूर्व इलाहाबाद जनपद के लाल गोपाल गंज में आ बसे थे और निकटवर्ती भदरी (वर्तमान में प्रतापगढ़ जनपद) के राजा साहब के यहां बतौर खजांची काम करने लगे थे।

राधामोहन जी का जन्म १५ दिसम्बर १८६५ को लाल गोपालगंज, इलाहाबाद में हुआ था। वह अपने पिता की चार संतानों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पास के बौद्ध भिक्षुओं के आवास विहार में हुई थी। वहीं उन्होंने पहले हिन्दी व फिर उर्दू, फारसी की पढ़ाई की थी। आगे की पढ़ाई के लिये उन्हें कानपुर में रहने वाले उनके ताऊ जी के पास भेज दिया गया था। यही उनका कानपुर से पहला सम्पर्क भी था। यहां उन्हें फारसी के साथ-साथ बहीखाते की शिक्षा मिली। इसी बीच तत्कालीन परम्परा के चलते १३ वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह कर दिया गया था। चूंकि वह आगे पढ़ना चाहते थे सो वह कानपुर छोड़कर आगरा अपने चाचा के पास आ गये और सेंट जॉन्स कालिजिएट में दाखिला लेकर अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू कर दी।

वह शिक्षा पूर्ण कर पाते कि उन पर एक के बाद एक विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। यहीं से उनकी ऐसी कठिन परीक्षा शुरू हुई कि दूसरा व्यक्ति होता तो शायद जीवन से ही मोह त्याग देता। पर राधा मोहन जी ने हर विपदा का डटकर सामना किया। जहां शादी के ५ वर्षों बाद ही सन् १८८३ में उनकी पत्नी का निधन हो गया वहीं १८८४ में एक व्यापारिक दुर्घटना फलस्वरूप परिवार की आर्थिक स्थिति चरमरा गई। ऐसे में वह पढ़ाई छोड़कर नौकरी की तलाश में पुन: इलाहाबाद आ गये। यहां उन्हें एक सरकारी महकमे के एकाउंटस विभाग में २० रूपये माहवार की नौकरी मिल गई। पर यह नौकरी कुछ ही महीने चल सकी। एक गोरे अधिकारी के अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी तथा ताजीवन सरकारी नौकरी न करने की शपथ ली।

इलाहाबाद में जीवन यापन होता न देखकर वह रोजी-रोटी की तलाश में रीवा चले गये पर वहां वह बामुश्किल एक डेढ़ वर्ष रह पाये। बीमारी के चलते वह कानपुर आ गये। उस समय कानपुर में पं० प्रताप नारायण मिश्र जी के ब्राह्मण पत्र की बड़ी धूम थी। चूंकि राधा मोहन जी को लिखने पढ़ने का बड़ा शौक था और पहले ही बाल कृष्ण भट् के हिन्दी प्रदीप में उनकी कवितायें व लेख छपने लगे थे अतएव जब वह मिश्र जी से मिले तो वह मिश्र जी को इतना भाये कि उन्होंने अपने पत्र में उनका नाम आनरेरी मैनेजर के रूप में छापना शुरू कर दिया। उनके उत्तेजक लेख भी ब्राह्मण में छपा करते थे।

इसी बीच उन्होंने देश के तत्कालीन हालात पर एक पुस्तक भी लिखी जो कि इतनी उग्र भाषा में थी कि उसे पढ़ने के बाद कानपुर के तत्कालीन सुप्रसिद्ध समाजसेवी व जाने माने वकील पं० पृथी नाथ ने कहा था कि अभी ऐसी रचनाओं का समय नहीं है और उनके कहने पर उन्होंने पुस्तक को जला दिया था। इधर आर्थिक स्थिति निरंतर बिगड़ने से परिवार की परेशानियां बढ़ती ही जा रही थीं। अत: उन्हें पिता जी का हाथ बंटाने की नीयत से न चाहते हुये भी कानपुर छोड़ना पड़ा और वह पिता जी के साथ हसनपुर (गुड़गांव) आ गये। इसी दौरान उनकी पुत्री का भी देहांत हो गया। यह समाचार पाकर उनका मन और व्यथित हो गया। काम-काज से मन उचाट होने से कोसीकलां (मथुरा) चले आये पर दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। सन् १९०१ में १६ वर्ष की आयु में उनकी एक मात्र निशानी बचे इकलौते पुत्र का निधन हो गया। जिससे वह बिल्कुल टूट से गये। मन उचाट हो गया। बेटे पर आई भारी विपदा से दुखी पिता गोकुल चंद्र जी ने दुबारा विवाह करने को कहा। पहले तो वह मना करते रहे पर जब बेहद दबाव में तैयार हुये तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि यदि वह दुबारा विवाह करेंगे तो सिर्फ किसी विधवा से ही करेंगे। इस पर परिवारवाले राजी नहीं हुये थे अतएव उन्होंने विधुर रहने की प्रतिज्ञा कर ली।

परिवार के छिन्न-भिन्न होने व परिवार की आर्थिक स्थिति डावांडोल होने से क्षुब्ध राधा मोहन जी का मन आगरा में लग नहीं रहा था सो अचानक घर छोड़कर बम्बई चले गये। वहां से बीकानेर जयपुर आदि जगहों पर भटकते रहे पर उनका मन इतना बेहाल था कि कहीं भी उन्हें चैन नहीं मिल पा रहा था। अंतत: सन् १९०४ में वह कलकत्ता जा पहुंचे। यहीं से उनके जीवन को एक और नई दिशा मिली। वैश्य समाज में उन्होंने पैठ बना ली और युवाओं को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध क्रांतिकारियों की सहायता करने व क्रांति आंदोलनों में भाग लेने को प्रेरित करने लगे। इसी बीच आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी के विचारों से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने आर्य समाज के सहयोग से ‘सत्य सनातन धर्म’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। इस पत्र के माध्यम से उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं पाखण्डों पर जोरदार हमला शुरू कर दिया। इससे भले ही वैश्य समाज उनसे नाराज हुआ पर समाज के बीच उनकी प्रतिष्ठा व स्वीकार्यता बढ़ती चली गई। हालांकि तीन वर्षों बाद उनका साप्ताहिक पत्र बंद हो गया पर इस दौरान उनकी प्रतिष्ठा तत्कालीन नामवर साहित्यकारों/पत्रकारों मसलन पुरूषोत्तम दास टंडन, श्याम सुन्दर दास, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, गणेश शंकर विद्यार्थी, महादेव प्रसाद सेठ, शिव पूजन सहाय आदि के बीच स्थापित हो चुकी थी। तत्कालीन छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तो उन्हें अपना राजनीतिक गुरु ही मानते थे।

एक तरफ राधा मोहन जी ने सत्य सनातन धर्म के माध्यम से जहां लोगों को सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा दिलाया वहीं अपने क्रांतिकारी व जोशीले लेखों से क्रांतिकारी आंदोलन में प्राण फूंकने का काम किया। उन्होंने न केवल अपने लेखों से वरन् आर्थिक रूप से क्रांतिकारियों की भरपूर मदद करने में महती भूमिका निभाई। उस समय कलकत्ते में सक्रिय प्रसिद्ध क्रांतिकारी आशुतोष लाहिड़ी उनके पक्के दोस्त बन चुके थे। सन् १९१४ में जब क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ मुखर्जी ने जर्मन की बनी पिस्तौलों से भरे बक्से को गायब कर लिया तो उसे पार करने और छिपाने की जिम्मेदारी राधा मोहन जी ने निभाई थी। उन्हीं के प्रेरणा और प्रयत्नों से कुछ मारवाड़ी युवकों ने इसमें आर्थिक मदद दी थी।

सत्य सनातन धर्म के प्रकाशन के दौरान ही सन् १९०८ में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘देश का धन’ लिखी। इसमें उन्होंने धन कमाने से लेकर उसके उपयोग, सुरक्षा के साथ श्रम की भूमिका पर व्यापक प्रकाश डाला था। १९१२ में उन्होंने ‘नीति दर्शन’ नाम से दूसरी पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने समाज के समग्र कल्याण को लेकर नीतियां बनाने पर जोर दिया। नीति दर्शन में नीति से उनका तात्पर्य है- नीति मनुष्य के सहज कर्तव्य पथ का नाम है। स्पष्ट है कि वह सुसंस्कृति शब्द समाज के निर्माण में प्रत्येक नागरिक के सोच और आचरण की नीति तय कर लेना चाहते थे। ऐसी नीति जिसके मूल्य में लोक मंगल हो।

संयोगवश तत्कालीन सुप्रसिद्ध लेखक पं० सुन्दर लाल जी की घनिष्ठा के चलते उनके आग्रह पर वह नागपुर आ गये। जहां उन्होंने पं० जी के जेल जाने पर उनके द्वारा स्थापित असहयोग आश्रम का संचालन बखूबी किया। उन्होंने यहां भी स्वयं तो क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया ही अनेक युवकों को भी क्रांतिकारी आंदोलन का सहभागी बनाया। नागपुर से उन्होंने एक क्रांतिकारी युवक सतीदास मूंधड़ा द्वारा प्रकाशित ‘प्रणवीर’ का सम्पादन शुरू कर दिया। उनके सम्पादन में ऐसे-ऐसे लेख व विचार छपने लगे कि अंग्रेजों के बीच तहलका मच गया। ‘प्रणवीर’ कार्यालय नागपुर से ही ‘मेजनी’ और ‘गैरीबाल्डी’ के जीवन चरित्र पर उन्होंने अपनी लिखी दो पुस्तकों का भी प्रकाशन किया। इन सबका नतीजा यह निकला कि वह गिरफ्तार कर जेल में डाल दिये गये। इसी बीच प्रणवीर के सम्पादक का कार्य उनके कहने पर उनके सहयोगी सत्यभक्त जी ने संभाला पर विपरीत परिस्थितियों के चलते प्रणवीर का प्रकाशन भी बंद हो गया। जेल से छूटने के बाद उन्होंने देश में घूम-घूमकर क्रांति की अलख जगानी शुरू कर दी और लेखन कार्य भी जारी रखा।

प्रणवीर बंद हो जाने के बाद सत्य भक्त जी कानपुर आ गये और मजदूरों के बीच काम करना शुरू कर दिया। जब २५ दिसम्बर १९२५ को कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की पहली बैठक हुई तो उसमें राधा मोहन गोकुल जी शामिल हुये और फिर कानपुर में ही रम गये। उनके यहां आने से गणेश शंकर विद्यार्थी, चन्द्रशेखर आजाद तथा भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को और बल मिला। मजदूर आंदोलनों को धार देने के लिये जब सत्यभक्त जी ने ‘साम्यवादी’ नामक पाक्षिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया तो राधा मोहन जी हर स्तर पर उन्हें सहयोग करते रहे।

साम्यवाद से लोगों को परिचित कराने की दृष्टि से सन् १९२४ में ही उन्होंने ‘कम्युनिज्म क्या है’ नामक पुस्तक भी लिखी पर उसका प्रकाशन फरवरी १९२७ में हो सका। कानपुर में उन्होंने साम्यवाद को नई धार तो दी ही क्रांतिकारियों को नई ऊर्जा भी दी। कानपुर के क्रांतिकारी आंदोलन में उनका योगदान इतना व्यापक है कि जिसे यहां विस्तार से दिया जाना संभव नहीं है। साण्डर्स कांड के बाद पुलिस राधा मोहन जी के पीछे ही पड़ गई और सन् १९३० में वह गिरफ्तार कर लिये गये जिसमें उन्हें दो वर्ष की सजा हुई। १९३२ में जब वह जेल से छूटे तो उनका स्वास्थ्य इतना बिगड़ चुका था कि चलना फिरना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में वह पहले ही इलाहाबाद जा चुके अपने सहयोगी सत्य भक्त जी के बुलावे पर इलाहाबाद चले गये। हालांकि पुलिस के बराबर पीछा करते रहने व दबाव के चलते जल्द ही उन्होंने इलाहाबाद छोड़ दिया और पुलिस से बचने को साधु वेश धारण कर हमीरपुर के खोही गांव में आश्रम बनाया। यहीं से उन्होंने अपनी क्रातिकारी गतिविधियां जारी रखीं। यहीं वह कानपुर, बनारस, इलाहाबाद, बंगाल व अन्य जगहों से आने वाले क्रांतिकारियों से मिलते जुलते थे तथा गुप्त मंत्रणायें चलती थीं। वह ब्रिटिश सत्ता के विरोधी जमीनदारों से जो भी हथियार और धन जमा करते उसे वह उन क्रांतिकारियों को सौप देते थे। यह बात ज्यादा दिनों तक छिपी न रह सकी और धीरे-धीरे उस पूरे इलाके में फैल गई। इसी दौरान अंग्रेज परस्त कुछ जमीनदारों की शिकायत पर कलेक्टर ने उन्हें समन जारी कर जिला मुख्यालय तलब कर लिया। किसी को क्या मालूम था उनका यही दौरा उनके लिये जानलेवा सिद्ध होगा।

क्लेक्टर के फरमान पर वह टट्टू पर बैठकर जिला मुख्यालय के लिये रवाना हो गये। पहले से ही बीमार शरीर, लम्बी यात्रा व घटिया खानपान से वह और टूट गये। आखिरकार जब वह खोही वापस लौटे तो बिस्तर पर गिर गये और पेचिश का शिकार हो गये। चूंकि उस क्षेत्र में इलाज की कोई कारगर व्यवस्था न थी सो देहाती जड़ी बूटियों से ही उनका उपचार चलता रहा पर शायद इस क्रांतिकारी शेर को ईश्वर के सिर्फ बुलावे का इंतजार था। करीब सप्ताह भर घोर कष्ट भोगने के बाद अंतत: राष्ट्र के इस महान सपूत का ३ सितम्बर १९३५ को महाप्रयाण हो गया। स्थानीय लोगों ने आश्रम के समीप ही पूरे मान सम्मान के साथ उन्हें समाधि दे दी। ऐसे थे एक महान क्रांतिकारी, लेखक व पत्रकार राधा मोहन गोकुल जी!
(प्रभासाक्षी से साभार)

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