भारत की पहली महिला डॉक्टर  रुखमाबाई :  जिन्होंने  बाल विवाह के खिलाफ लड़ी जंग

रुखमाबाई का जन्म 22 नवंबर 1864 में हुआ। अपने जीवन में उन्होंने कड़े संघर्ष के बाद सफलता हासिल की थी। मुंबई के बढ़ई जाति से संबंध रखने वाले जनार्धन पांडूरंग और जयंतीबाई के यहां उनका जन्म हुआ।

रुखमाबाई ने मेडिकल की पढ़ाई तब की जब भारत पर ब्रिटिश राज था और महिलाओं को उनके मूल अधिकारों तक के लिए वंचित रखा जाता था। इंग्लैंड से पढ़ाई करने के बाद वो भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं। इसके साथ ही उन्होनें महिलाओं के मूल अधिकारों के लिए कार्य किए, अनेकों अखबारों से उन्होनें लोगों के दिल में अपने लिए जगह बनाई और लोगों के द्वारा दिए गए फंड से ही लंडन स्कूल ऑफ मेडिसिन से पढ़ाई पूरी की थी। रुखमाबाई ने कई समाज कार्यों में अपनी भूमिका निभाई और बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ बेबाक बोल लिखे। रुखमाबाई एक डॉक्टर के साथ एक समाजसेवक भी थीं। रुखमाबाई ने शिक्षा और अपनी निडरता से अपने साथ आगे आने वाली महिलाओं की पीढ़ी के लिए शिक्षा के रास्ते तो खोले और उन्हें बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरितियों से मुक्त करवाया।

रुखमाबाई का विवाह 11 साल की उम्र में 19 साल के दादाजी भिकाजी से उनकी बिना मर्जी के विवाह करवा दिया गया था लेकिन वो 12 साल की उम्र में अपने पति का घर छोड़ आई थीं। उनकी विधवा माता ने उनका साथ दिया और रुखमाबाई ने उनके साथ रहना शुरु कर दिया। माता जयंतीबाई ने असिस्टेंट सर्जन सखाराम अर्जुन के साथ विवाह किया, जिन्होनें रुखमाबाई की पढ़ाई को जारी रखा और हर मुद्दे पर उनका साथ दिया। रुखमाबाई के पति दादाजी भिकाजी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में पत्नी पर हक के लिए केस कर दिया। जिसमें कोर्ट ने रुखमाबाई को पति के साथ रहने का फैसला सुनाया और कहा कि दादाजी भिकाजी के साथ रहना होगा अन्यथा सजा के तौर पर जेल जाना पड़ेगा। जिसपर रुखमाबाई ने कहा कि वो इस तरह के रिश्ते में रहने से बेहतर जेल जाना पसंद करेंगी। ये केस ने इंग्लैंड में भी चर्चित हो गया और उसके बाद महारानी विक्टोरिया और ब्रिटिश सरकार ने शारीरिक संबंध बनाने के लिए रजामंदी की उम्र से जुड़ा कानून 1891 में पारित किया।

रुखमाबाई अपने पेन नेम ‘ए हिंदू लेडी’ से कई जगह लेख लिखे जिसमें उनके नारीवादी विचार झलकते थे। इसी तरह के एक लेख में उन्होनें अपने डॉक्टर बनने की इच्छा जाहिर की और उनके शुभचिंतकों ने फंड इकठ्ठे करके उन्हें पढ़ाई के लिए 1889 में इंग्लैंड भेजा। वहां से 1894 में एक प्रोफेशनल फिजिशियन बनकर लौंटने के बाद उन्होनें सूरत में एक अस्पताल में सेवाएं देनी शुरु कर दी थी। 1904 में दादाजी भिकाजी की मृत्यु के बाद हिंदू धर्म के अनुसार विधवा रुप में रहने लगी और 1918 में उन्होनें राजकोट के एक महिला अस्पताल में काम करना शुरु किया। वहां करीब 35 साल काम करने के बाद वो बंबई 1930 के आस-पास लौटीं और महिलाओं के लिए बनी पर्दा प्रथा और अनेकों कुरीतियों के लिए काम करना शुरु किया और अपने बेबाक शब्दों से उन्होनें लोगों को जागरुक करने का प्रयास किया और एक लंबी लड़ाई के बाद 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट आया जिसमें पति-पत्नी के रिश्ते के लिए दोनों पक्षों की मंजूरी होना आवश्यक किया गया। रुखमाबाई ने शिक्षा और अपनी निडरता से अपने साथ आगे आने वाली महिलाओं की पीढ़ी के लिए शिक्षा के रास्ते तो खोले और उन्हें बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरितियों से मुक्त करवाया।

 

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