चंद्रलेखा
कहाँ गलत थी ?
तुम्हें न हो याद शायद
पर मैं भूली नहीं
रखी थी जो शर्त तुमने
मुझे ‘अपना’ कहने से पहले
सच्ची ‘अर्धांगिनी’ तभी कहलाऊंगी
अपने लिए जीना नहीं,
औरों के लिए जीना जब
मैं सीख जाऊँगी ;
घूँघट उठाने से पहले,
मुझे छूने से पहले यही कहा था
तुम्हें याद न हो मगर
मैं भूली नहीं;
धन्य समझा था अपने जीवन को
और तुम्हें महान
एक नहीं सात जन्मों तक
कर सकती थी मैं इंतजार ;
बहुत आसान लगा मुझे
तुम्हारी शर्त पूरी करना
दिन, हफ्ते, महीने, साल बीते
और बीतते चले गए
तुम्हारी ख़ुशी, चाहतों और तुम्हारी शर्तों को
पूरा करते-करते मैं
पूरी से आधी
आधी से तिहाई और चौथाई में बंटती गई,
बंटते- बंटते फिर
सिमट गई शून्यों में ;
तुम्हारे सपनों को सच किया
सपने देखना मैंने छोड़ दिया ;
छोटे-छोटे तुम्हारे दुखों को सहेजा
अपने पहाड़ से दुखों को
बिखरने कभी न दिया ;
बढ़ते बच्चों की आशा- उम्मीदों को
ईंधन दिया
सुबह के नाश्ते और रात के खाने के बीच
घुटती आवाज़ को मैंने
कभी बोलने न दिया
तुमको ‘तुम्हारे’ परिवार, बच्चों, दफ्तर, सपनों
औ’ ‘समाज’ से जोड़ दिया
दूर होती गई तुमसे
मैं धीरे-धीरे-धीरे
तुम यह जान न पाए
कह भी न सकी मैं
मुझे तुम्हारी सच्ची ‘अर्धांगिनी’ जो बनना था
मैं भूली नहीं कभी ;
मुझसे विलग होकर ही जुड़े तुम
अपने ‘अपनों’ से,
जीते रहे तुम ‘अपनों’ के लिए
देव! कितनी स्वार्थी हो गई मैं
जोड़ना चाहती थी तुम्हें सिर्फ अपने से
अपनों का सुख, परायों का दुःख
सहेजा तुमने कितनी सहजता से
मैं क्या थी तुम्हारे लिए?
‘अपनी’ या कि ‘पराई’ ?
‘अर्धांगिनी’ न बन सकी तुम्हारे लिए
हार गई मैं शर्त
तुम्हारे लिए जीते-जीते
अपने लिए जीना न सीख पाई मैं
2. आज़ादी
उड़ सकती हूँ मैं
बादलों के भी पार
गा सकती हूँ सुरीला गान
होगा जो कोकिल से भी मीठा
रच सकती हूँ कोई
एक नया महाकाव्य
दायरे हैं न बंदिशे कोई
मैं आज़ाद हूँ घर में
‘अकेली’ हूँ ‘अपने साथ’
3. स्वीकार
तुम्हारे साथ जिया मैंने जीवन
और (शायद) तुमने भी !
जो दिया तुमने
जिस रूप में भी दिया
मैंने, स्वीकार किया ;
धर्म इसी को बताया गया
आराधना यही ईश्वर की
जीवन की साधना यही
लक्ष्य जीवन का यही
आदि यही और अंत भी यही
शास्त्रों में यही समझाया गया ;
स्वीकार किया तुम्हें मैंने
और तुमसे मिले हर दान को
लेकिन ;
तुमने कभी पूछा नहीं
मुझे यह स्वीकार है ?
या नहीं ?
4. शिकायत है तुमसे
लगाया दांव पर द्रुपद सुता को
फिर भी धर्मराज कहलाये
बने रहे पुरुषोतम तुम
और सिया ने कष्ट उठाये
त्याग यशोधरा का करके
योगी, ज्ञानी, बुद्ध हुए तुम
कभी अहिल्या, कभी जानकी
और द्रौपदी बनी रही मैं
तिरस्कार,त्याग नहीं यह मेरा
अपमान हुआ सिर्फ नारी देह का;
तुम देवराज ! तुम्ही धर्मराज !
राम भी तुम्ही, रावण भी तुम्ही
तुम समाज के, समाज तुम्हारा
बने समाज के तुम्ही अधिष्ठाता !
अपना तिलक आप सजा के
ऊँचे सिंहासन जा बिराजे
भूले से भी याद नहीं क्यों
इसी देह से तुम भी जन्मे !
नियति नहीं थी फिर भी,लेकिन
होती रही ये देह तिरस्कृत;
अदेह शक्ति को पूज-पूज कर
किया अपमान नारी देह का
मान तुम्हारा रखने खातिर
लुटती रही ये देह सदा
बली सदा तुम बने रहे
रह गई ये देह अबला;
आँचल रात्रि जब ले समेट
तब होता हर रोज़ उजाला
इठलाता सागर का यौवन
नदियाँ ले जब देह समेट;
न ये माता, न ये भार्या
न सुता , न भगिनि तुम्हारी
हर युग हर काल में
रही सामने देह सदा ;
बहता रक्त शिराओं मे
और सांस भी चलती
भावना जगती, सपने पलते
ठीक तुम्हारे भीतर जैसे
समझो न केवल देह इसे
रोष नहीं यह, न कोई विरोध
पीछे चलने की चाहत, न
आगे निकलने की होड़
गिला नहीं विधाता से
पर हाँ, शिकायत !
तुम से…सिर्फ तुम्ही से है
भूले से ही सही, कभी तो
इंसा ही समझ लिया होता
देह से परे कभी तो जाकर
मन में झाँक लिया होता …
5. आधी दुनिया
बचपन गुज़रा
जवानी बीती
बुढ़ापे तक भी
छिपी रही पहचान;
देवी सी पूजी गयी
तिरस्कृत हुई दासी-सी
रही महरूम हमेशा ही
अपनी ही पहचान से ;
पाषण से कंप्यूटर तक
पहुँच चुका संसार
घर आँगन में ही
दफन है
आधी दुनिया का संसार !
(कवियित्री पूनम पाठक ‘ चन्द्रलेखा की कविताओं में स्त्री की मनोदशा का चित्रण ही नहीं बल्कि उन सवालों की गूँज भी सुनाई पड़ती है जो वह करना चाहती थी मगर वे दबे रहे या दबा दिए गए। उपरोक्त कविताएँ चन्द्रलेखा के काव्य सँग्रह ‘संग्रह ‘सन्नाटा बुनता है कौन’ से ली गयी हैॆ। सम्पर्क सूत्र – 9433700506)