नज़ीर बनारसी
डरता हूँ रूक न जाये कविता की बहती धारा
मैली है जब से गंगा, मैला है मन हमारा
छाती पे आज उसकी कतवार तैरते हैं
राजा सगर के बेटो तुम सबको जिसने तारा
कब्ज़ा है आज इस पर भैंसों की गन्दगी का
स्नान करने वालो जिस पर है है हक़ तुम्हारा
श्रद्धाएँ चीख़ती है विश्वास रो रहा है
ख़तरे में पड़ गया है परलोक का सहारा
किस आईने में देखें मुँह अपना चाँद-तारे
गंगा का सारा जल हो जब गन्दगी का मारा
इस पर भी इक नज़र कर, भारत की राजधानी
क़िस्मत समझ के जिसको राजाओं ने सँवारा
बूढ़े हैं हम तो जल्दी लग जायेंगे किनारे
सोचो तुम्हीं जवानो क्या फ़र्ज़ है तुम्हारा
कविता ’नजीर’ की है तेरी ही देन गंगे
तेरी लहर लहर है उसकी विचारधारा