कान फिल्म फेस्टिवल के आखिरी दिनों में मैं लॉरियल के ब्रैंड एंबेसडर के रेड कार्पेट पर चलने की तस्वीरें ही पोस्ट करती रही. ऐश्वर्य राय बच्चन, दीपिका पादुकोण, सोनम कपूर…पर, आखिर वो फिल्में कहां हैं, जो हम हर साल बनाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में किसी भारतीय फिल्म को जगह मिली.
शबाना आजमी ने हाल ही में अपने सहयोगियों के साथ एक तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की थी। इसमें लिखा था ‘1976 में कान फिल्म फेस्टिवल में, आधिकारिक सेक्शन में फिल्म निशांत के लिए’. फिल्म में सबसे खूबसूरत बात इसकी सादगी थी। फिल्म अहम थी, कपड़े नहीं.
शायद बहुत कम लोगों को मालूम हो कि फिल्म और टेलिविजन इंस्टीट्यूट की छात्रा पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आफ्टरनून क्लाउड्स’ को कान फिल्म फेस्टिवल सिने फाउंडेशन सेक्शन में दिखाया जा रहा है। मीडिया इस सेक्शन को बिल्कुल तवज्जो नहीं देता.
पायल की सीनियर राजश्री ने कहा कि मैं अपनी जूनियर पायल पर गर्व करती हूं. उस भविष्य के लिए शुभकामनाएं! यहां आकर लगा कि कान फिल्म फेस्टिवल है, गाउन फेस्टिवल नहीं! राजश्री का ये तंज अपनी ड्रेस के लिए चर्चा में आई भारतीय अभिनेत्रियों पर था।
पूरी दुनिया में घूम-घूमकर फिल्म फेस्टिवल कवर करने वाले असीम छाबड़ा ने भी कमोबेश यही बात कही। छाबड़ा ने कहा, ‘भारत की फिल्म इंडस्ट्री सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। ये दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है. लेकिन हम एक भी ऐसी फिल्म नहीं बना पाते, जिसे दुनिया सराहे, उसकी समीक्षा करे। कान फिल्म फेस्टिवल में लोग उसे देखना चाहें. आखिर ये दुनिया का सबसे चर्चित फिल्म फेस्टिवल है. यहां तो भारत की कुछ अभिनेत्रियां रेड कार्पेट पर चलती हैं. वो ऐसे कपड़े पहनती हैं, जिनमें जरा भी भारतीयता नहीं होती। वो अपने देश की परंपराओं, कला और उम्मीदों से एकदम कटी नजर आती हैं।.’
उन्होंने कहा, ‘भारत अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में दिखाने लायक एक भी फिल्म नहीं बना पाता। फिर भी ये अभिनेत्रियां कान जैसे फिल्म फेस्टिवल में भारत की इकलौती नुमाइंदगी करती हैं। ये खूबसूरत अभिनेत्रियां रेड कार्पेट चलते वक्त भारत की जरा भी नुमाइंदगी नहीं करतीं’.
हम कान फिल्म फेस्टिवल में गोल्डेन गाउन और रेड कार्पेट पर चलने वाली अभिनेत्रियों के फैशन की गलतियों की चर्चा के बारे में सुनते रहते हैं. सच तो ये है कि ऐश्वर्य जैसी अभिनेत्रियां कभी फिल्म फेस्टिवल में फिल्मों के साथ नहीं आईं। शायद उन्हें पता भी न हो कि कौन सी फिल्में यहां दिखाई जा रही हैं। उन्हें शायद ये भी न मालूम हो कि फिल्म इंस्टीट्यूट की एक छात्रा की फिल्म यहां दिखाने के लिए चुनी गई है।
जब शबाना आजमी को बताया गया कि कान फिल्म फेस्टिवल को लेकर उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई, तो उन्होंने कहा, ‘चेतन आनंद की नीचा नगर, सत्यजित रे की पाथेर पंचाली, मीरा नायर की सलाम बॉम्बे, विक्रमादित्य की उड़ान जैसी फिल्मों ने कान फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड जीते हैं. लेकिन ये सच है कि हम कान फिल्म फेस्टिवल में बहुत कम अवार्ड जीते हैं।
उन्होंने कहा, ‘सच तो ये है कि इस फिल्म फेस्टिवल के लिए बहुत कम भारतीय फिल्मों का चुनाव होता है। बहुत कम ऐसी होती हैं जो मुकाबले में उतरने लायक मानी जाती हैं। इनमें से श्याम बेनेगल की निशांत और मृणाल सेन की जेनेसिस में मैंने भी काम किया था. ये मेरे लिए फख्र की बात है. बरसों बाद मुझे कान में अवार्ड देने के लिए बुलाया गया था। मैं चर्चित कार्लटन होटल में ठहरी थी. कभी मैं उसे देखते हुए गुजर जाया करती थी। जब मैं निशांत फिल्म के लिए कान गई थी तो हम वहां कॉफी भी नहीं पी सकते थे. कान बहुत अहम फिल्म फेस्टिवल है। वहां जीतने वाली फिल्में बेहद शानदार होती हैं। ये बड़ा बाजार भी है. अफसोस की बात है कि हम वहां जाकर फिल्मों के बजाय इस बात पर चर्चा करते रहते हैं कि किसने क्या पहना।
‘कई साल पहले जब पता चला कि फेस्टिवल के आयोजकों ने वहां चप्पल पहनकर रेड कार्रेपट पर चलने पर रोक लगा दी है, तो मैं बहुत नाराज हुई थी। अच्छी बात ये रही कि इस रोक पर बहुत हो-हल्ला हुआ। मैंने भी इस पाबंदी पर अपनी नाराजगी जाहिर की. इसके बाद ये आदेश वापस ले लिया गया।’
‘मीडिया ने रेड कार्पेट पर चलने के वक्त पहने जाने वाले कपड़ों को कुछ ज्यादा ही हवा दे दी है। फैशन ब्रांड बड़े सितारों को ब्रांड एंबेसडर बनाते हैं। उन पर काफी पैसे खर्च करते हैं ताकि ब्रांड की नुमाइश और प्रचार हो सके लेकिन मेरा मानना है कि किसी भी फिल्म फेस्टिवल में किसी देश की सबसे अच्छी नुमाइंदगी उस देश की अच्छी फिल्में ही कर सकती हैं। अगर उनका चुनाव आधिकारिक दर्जे में होता है तो ये देश के लिए फख्र की बात होती है। अगर आपकी फिल्म को कुछ खरीदार मिल जाएं तो और भी अच्छा होता है। मुझे अच्छा लगता है कि कुछ भारतीय फिल्मों ने इसमें कामयाबी हासिल की है।
(साभार – फर्स्ट पोस्ट)