मन कैसे ‘सीताराम’ कहे!
सिंहासन पर रहें राम, सीता वन बीच दहे!
‘पढ़ते ही वह सकरुण गाथा
झुक जाता लज्जा से माथा
क्या सीता का दोष भला था
यों लांछना सहे!
जब ले चले सती को लक्ष्मण
भूला कभी आपको वह क्षण!
प्राणप्रिया को दे निर्वासन
प्रभु क्या सुखी रहे!
‘विरह जगत की अंतिम गति हो
पर क्यों इतना क्रूर नियति हो
जब फूलों से भरी प्रकृति हो, आँधी तेज बहे!’
मन कैसे ‘सीताराम’ कहे!
सिंहासन पर रहें राम,
सीता वन बीच दहे!
”प्रभो! अच्छा पत्नीव्रत पाला
प्रभो अच्छा पत्नीव्रत पाला !
धोबी के ही कहे प्रिया को निर्वासन दे डाला !
बजवा सत्य-न्याय का डंका
जिसके लिए विजय की लंका
उसी सती को करके शंका घर से तुरत निकला
‘सोचा भी न तनिक यह मन में
क्या बीतेगी उस पर वन में !
चाँद बिना चाँदनी भुवन में पा सकती उजियाला !
‘यदि लोकापवाद था गन्दा
न्याय सदा होता है अँधा
तो क्यों नहीं राज्य का फन्दा अपने सिर से टाला !’
प्रभो अच्छा पत्नीव्रत पाला !
धोबी के ही कहे प्रिया को निर्वासन दे डाला !
(साभार – कविता कोश)