अनुवाद – शुभस्वप्ना मुखोपाध्याय
(१)
भीमचाँद अपना एक हाध दूसरे हाध के ऊपर ज़ोर से रखकर, गम्भीर स्वर में अपनी सोलह वर्ष की पत्नी विनोदिनी से कहता है,”इन आँखों से किसी के चेहरे को पढ़कर यदि उसके मन के भावों को समझ ही न पाऊँ तो ये आँखें किस काम की । इस दुनिया में मुझे बेवकूफ बनाना बहुत कठिन है। क्या समझी?”
विनोदिनी गुस्से से लाल होकर कहती है,”उसी घमंड की आग में आप गल न जाए किसी दिन । मुझे तो लगता है आपको बुद्धू बनाना दुनिया में सबसे आसान काम है ।”
भीमचाँद कुछ देर ज़ोर से हँसकर कहता है, गलत, गलत बिल्कुल गलत। मैं भले ही भोला-भाला दिखूँ पर हूँ वैसा नहीं । एकबार मैं जिसे देख लूँ , उसके पेट के अन्दर से सारी बातें निकाले बिना मैं रहता नहीं । यह जान के रखना ।”
“जी जान ली” विनोदिनी बोली। फिर कुछ क्षण मौन रहने के बाद काफी उदास होकर कहती है, “ऐसा कर सकते हैं तो आपका ही भला है , मेरा क्या । आप मेरे पति हैं जो आप सोचे वही सही । आप ही तो मुझे खिलाते-पिलाते हैं । लेकिन एक बात कह दूँ , आपकी सौतेली माँ ने यदि आपको धोखा न दिया, तो मेरे नाम पर एक कुत्ता पालिएगा ।”
इसके बाद भीम कुछ पल आपनी पत्नी के चेहरे को देखा , फिर कहा ,”ठीक है, मैं आज अभी नयी माँ के पास जाकर, वह क्या खेल रच रही हैं, यह जानकर तुम्हें आकर न बता दूँ तो मेरा नाम भी भीमचाँद नहीं।”
अब मैं थोड़ा पीछे जाकर इस बातचीत का मूल कारण को स्पष्ट करता हूं ।
भीमचाँद के पिता शिवदास बाबू एक सुसंपन्न वक्ति थे । जब भीम सात साल का था तभी उसकी माँ चल बसी। पत्नी शोक शिवदास से और सहा नहीं जा रहा था इसलिए वे अपने ही गांव की एक गरीब विधवा की बेटी सुखदा से विवाह कर ले आए और उन असहाय माँ-बेटी को अपने घर में आश्रय दे दिया । लेकिन भीमचाँद के नटखटपन से वे दोनों माँ बेटी त्रस्त थी इसलिए भीम को उसके मामा के घर भेज दिया शिवदास ने । भीम के मामा ने उसे पाल-पोषकर बड़ा किया और जूट के काम-काज में नियुक्त कर दिया ।
इसी तरह वषों बीत गए । तीन साल पहले भीमचाँद अपनी पत्नी के साथ मामा घर से लौटा । अब नयी बहू की अपनी सौतेली सास से न बनती थी और न ही भीम की अपने तीनों सौतेले भाइयों से बनती थी । अतः वृद्ध शिवदास ने यह ऐलान कर दिया कि भीम एवं उसकी पत्नी उस घर में नहीं रह सकते इसलिए वह अपना पैतृक घर छोड़ कर किराए के घर में पत्नी के साथ रहने लगा । बहुत ही कष्ट से उन दोनों के दिन बीत रहे थे । मैं उसी समय का इतिहास बता रहा हूँ ।
कुछ महीनों से बीमारी ने शिवदास को ऐसे जकड़ लिया कि शिवदास अब बिस्तर से उठने की क्षमता भी खो चुके। उनके जीने की कोई आशा भी नहीं है । भीमचाँद अपना सारा काम छोड़कर दिन-रात बीमार पिता की सेवा में लगा रहता है । सुबह कुछ देर के लिए पत्नी के पास आता है , उसके रोज़मर्रे का समस्त बन्दोबस्त करके , वापस पिता के पास चला जाता है।
लोग कहने लगे कि भीम की अनुपस्थिति में शिवदास ने एक वसीयतनामा तैयार किया है जिसमें उनके जेष्ठपुत्र भीमचाँद का अंश शून्य पड़ा है ।
आज सुबह भीम के घर आते ही विनोदिनी ने यह बुरी खबर उसे दीऔर इसी के उत्तर में अन्तर्यामी भीम कहने लगे ,”मेरी गैर मौजूदगी में ऐसी घटना घटी होती तो मुझे मेरी सौतेली माँ की नज़रों से ज़रूर मालूम पड़ता। मेरे आँखों से कभी भी चूकता नहीं ।”
भीम भागता हुआ अपने पैतृक घर में आया । इधर- उधर देखे बिना ही रसोई घर में चला गया । उस वक्त सुखदा अपने बीमार पति के लिए पथ्य बना रही थी। भीम ने आवाज लगायी, “सुनती है माँ ।” सुखदा ने थकी हुई दृष्टि उठायी । तीखी नज़रों से माँ के चेहरे को देखते हुए भीम बोला,”क्या पिताजी ने वसीयतनामा तैयार किया है?” एक लम्बी साँस छोड़कर सुखदा कहती है,” कैसे जानूँ बेटा उन्होंने क्या किया है। मैं जिस दुःख से मर रही हूँ वह केवल भगवान ही जाने।” भीम ने थोड़ी-सी नरम आवाज में कहा, “नहीं मतलब, सुना कि यह सब आपकी बातों के अनुसार हो रहा है और उसमें मेरा नाम तक नहीं है?” सुखदा ने आँचल से आँसू पोंछते हुए कहा ,”लोग तो ऐसा कहेंगे बेटा , मैं जो तुम्हारी सौतेली माँ ठहरी । लेकिन वे अभी भी जिंदा हैं , चाहो तो जाकर पूछ सकते हो।”
(२)
भीम के मन से समस्त ग्लानि पिघल गयी । सौतेली माँ के आँसू और आवाज़ ने उसका सारा संदेह मिटा दिया कि ये सब झूठ है । वह तुरंत पश्चाताप भरे स्वर में कहने लगा ,”मैंने यकीन नहीं किया, यकीन नहीं किया माँ । मुझे किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है । मुझे पता है कि ये सारी बातें झूठ है।” इतना कहकर वह वहाँ से चला गया । पिता के घर में जाकर मृत्युपथगामी पिता को ममता और श्रद्धा के साथ देखता रहा । अपने हाथों को उनके पैरों पर सहलाने लगा , उन्हें दूध पिलाया। तीन साल पहले उसके पिता की स्पष्ट बातों से जब उसे सपत्नीक घर से निकालना पड़ा था तब उसे पिता से अत्यंत अभिमान हुआ था पर आज उस अभिमान को याद करते हुए उसे बहुत अनुताप होता है । वह पिता से मन ही मन क्षमा भिक्षा मांगने लगा तथा मुँह फेरकर अपने आँसू पोंछने लगा ।
वह वहाँ भी ज्यादा देर टिक न पाया । जब तक वह विनोदिनी को वह खुशखबरी नहीं देता तबतक वह स्थिर नहीं हो सकता । घर पहुँचकर , बाहर चप्पल खोले बिना ही बैठक में चला गया । तब विनोदिनी खाना पका रही थी। दरवाज़े के सामने खड़े होकर ऊँची आवाज़ लगायी, “अरे सुनती हो !” विनोदिनी आँख उठाकर बोली,”अब क्या है?” भीमचाँद ने बत्तीस दाँतों को निकाल कर कहा,”झूठ, झूठ , सब कुछ झूठ।” “क्या झूठ ?” विनोदिनी ने पूछा । भीम ने उत्तर दिया,”वह जो तुम्हारे वसीयतनामा की बातें । मैं कह रहा था न तुम्हें , यह कैसे हो सकता है? मैं पूरा दिन उस घर में रहता हूँ। मुझे कोई धोखा देगा , यह मैं जान ही न पाऊँ और पड़ोसी सबकुछ जान गए!?”
विनोदिनी को पति की बातों का यकीन नहीं हुआ , वह पूछी,”तुम क्या पता करके आए यह बताओ न।” वैसे ही भीम गुस्से से टूटकर कहने लगा,”यह बात झूठ है , यही जानकर आया और क्या।” विनोदिनी कुछ बोले बिना सिर्फ पति का मुँह ताकती रही। भीम बोलता रहा,”मैंने जाकर कहा, माँ सुनती हो । फिर जैसे ही वह आँख उठाकर देखी । मैं सबकुछ समझ गया । अरे यह मेरी दैवीय शक्ति , जानकर रखो । इन्सान कोई भी हो, जब एकबार मैं उसकी आँखों के तरफ देख लूँ , उसके मन की सारी बातें को मैं छपे हुए अक्षरों की तरह पढ़ सकता हूँ। उनका भी पढ़ लिया।”
विनोदिनी एक लम्बी साँस छोड़कर बोला,”बहुत अच्छा किया । मैं सोची कि ये सचमुच कुछ जानकर आए हैं ।”
भीम अब भयंकर रूप से उत्तेजित हो उठा और बोला,” इससे बढ़कर और क्या सत्य है? एक वसीयतनामा बन गया, वहाँ बैठकर मुझे मालुम नहीं पड़ा , माँ नहीं जान पाई और यहाँ बैठकर तुम जान गयी ? मेरी माँ रो-रोकर बोली,”बेटा मैं तुम्हारी सौतेली माँ हूँ..।” अब इससे आगे और क्या चाहती हो तुम ?” विनोदिनी ने और तर्क न किया। वह अपने पति को भी जानती थी और सौतेली सास को भी। वह सिर्फ बोली, “ठीक है, ऐसा होने से ही अच्छा है। तुम अब जाओ जा के नहा लो । खाना तैयार है।”
पत्नी की शक्ल देखकर भीम जान गया कि विनोदिनी को तनिक भी विश्वास नहीं हुआ । इसलिए नाराज़गी के साथ उत्तर दिया,”मेरी बातों का यकीन नहीं होता तो दूसरों की ही सही लेकिन मैं यहाँ खाना खा नहीं सकता । मुझे लौटना होगा।”
वह जिस गति से आया था , उतनी ही तेज़ गति में चप्पल की पटपट आवाज़ के साथ लौट गया ।
भीमचाँद ने अपने पिता का शोभामय श्राद्ध करना चाहा । हाल ही में हुई विधवा सुखदा ने , रो-धो कर बताया कि लोहे के संदूक में फूटी कौड़ी तक नहीं है। भीम जेष्ठ पुत्र था अतः सभी दायित्व-कर्तव्य उसी के ऊपर था , जिसके कारण उसे अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर तथा कागज पर दस्तखत करके सेठ से कुछ पैसे उधार लेकर श्राद्ध के खर्च मिटाने पड़े ।
श्राद्ध काम सम्पन्न होने पर वकील आया और वसीयतनामा पढ़़ कर सुनाया , जिसमें, शिवदास अपने द्वितीय पक्ष के तीन लड़के के नाम पर ज़ायदाद समान रुप से बाँट दिए हैं लेकिन ज्येष्ठ पुत्र भीमचाँद के लिए कुछ नहीं फूटी कौड़ी तक नहीं रखकर गए । बेचारा भीमचाँद , वह तब और क्या करता । बूद्धू की तरह मुँह लटकाए बैठा रहा ।
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