इनके कई नाम है – उत्तर में तवायफ, दक्षिण में देवदासी, गोवा में नायिका, बंगाल में बाजी, ब्रिटिश के लिए नौच गर्ल्स फिर भी ये सारे नाम अश्लीलता का पर्याय है। लेकिन, वे सभी एक मजबूत व स्वतंत्र महिलाएं थीं। एक सदी से भी पुरानी बात है जब भारत ने अपनी एकजुटता दिखाकर खुद को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद किया था। भारत ने अपने स्वतंत्रता की पहली लड़ाई साल 1857 में लड़ी थी, जिसकी गूंज दशकों तक दबाई नहीं जा सकी और जिस कारण आज़ादी के सपने को सच्चाई में बदल पाना संभव हो पाया। हम उस आंदोलन से तो भली-भांति परिचित हैं, जिसकी शुरुआत सिपाहियों की एक टुकड़ी द्वारा की गयी थी और जो फैलती हुई देश के अधिकांश हिस्सों में पहुँच गयी। पर हम इस कहानी के जिस पहलू को नहीं जानते वो उन लोगों की है, जिन्होंने इस आन्दोलन को संभव बनाया।
ये एक ऐसी लड़ाई थी जिसे मंच पर खड़े कुछ नेता अपने दम पर नहीं लड़ सकते थे। बल्कि, यह लड़ाई सही मायने में उन अनगिनत लोगों ने लड़ी जिन्होंने अपने स्वार्थ से ऊपर अपने देश को रखा। इन लोगों की कहानियाँ या तो भूली जा चुकी हैं, या तो इतिहास के पन्नों में धूमिल हो रही हैं और कुछ की तो मिट भी गयी है।
उस समय देश के लिए किया गया तवायफ़ों का योगदान भी कुछ ऐसा ही है। ये ऐसी बहादुर स्वतंत्रता सेनानी थीं जिनके आत्म-बलिदान की कहानियों का शायद ही कहीं ज़िक्र मिले। इनमें से एक हैं आजीज़ूनबाई जिनकी कहानी आज भी प्रेरणा देती है। कौनपोर की घेराबंदी
भारतीय सैनिक ब्रिटिश अफसरों के विरुद्ध खड़े हो गए थे। हर तरफ तनाव का माहौल था। इसी समय जून 1857 में एक घटना हुई। भारतीय सैनिक जब कौनपोर (कानपुर) की घेराबंदी कर रहे थे उसी वक्त ब्रिटिश अफसरों ने उन्हें घेर लिया। उस समय इन सैनिको के साथ एक तवायफ भी थी जो इनसे कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही थी। यह तवायफ थी अज़ीज़ुंबाई जिन्हें मर्दाना कपड़ों में, पिस्तौल, मेडल से लैस घोड़े पर सवार देखा गया था।
इस दिलचस्प कहानी का किसी भी पाठ्यपुस्तक में कोई उल्लेख नहीं मिलता। हालांकि इसका जिक्र आज भी स्थानीय कहानियों, ऐतिहासिक रिपोर्ट व शोध के कागजों में मिल जाता है। जवाहरलाल विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर वुमन्स स्टडीज़ के असोसिएट प्रोफेसर लता सिंह द्वारा लिखे गए पेपर में इसका वर्णन है। लता सिंह के अनुसार मुख्यधारा के इतिहास में इन औरतों के कार्यों को लुप्त कर दिया गया है फिर भी अज़ीज़ुंबाई का नाम कई लेखों में मिल जाता है। वीडी सावरकर, एसबी चौधरी जैसे लेखकों ने भी उनका उल्लेख किया है और साथ ही इस लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रशंसा भी की है। ऐसा भी माना जाता है कि नाना साहिब के प्रारंभिक जीत के अवसर में जब कानपुर मे झंडा फहराया जा रहा था तब वह उस रैली में मौजूद थीं। कानपुर में आज भी अज़ीज़ून का नाम लोगों के दिमाग में जीवित है। अज़ीज़ुंबाई एक जासूस, खबरी और सेनानी थीं। उनका जन्म लखनऊ में एक तवायफ के घर हुआ था । उसके बाद वह कानपुर के ऊमराव बेगम के लूरकी महल में चली गयीं।
लता सिंह ऐसा मानती हैं कि उनका लखनऊ के सांस्कृतिक माहौल से दूर कानपुर के छावनी में जाने का कारण स्वतंत्रता के प्रति उनका जुनून हो सकता है। इन लेखों के अनुसार अज़ीज़ूनबाई को भारतीय सैनिकों का करीबी माना गया है।खासकर उन्हें घुड़सवार सेनानी शामसुद्दीन का करीबी माना गया है जिनकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका रही है। लता सिंह आगे बताती हैं, “अज़ीज़ून का घर सिपाहियों के मिलने का अड्डा भी था। उन्होंने महिलाओं का एक ऐसा समूह बनाया जो निडर हो कर साथ देने, हथियारों से लैस सिपाहियों का मनोबल बढ़ाने, उनके घाव को साफ करने और हथियारों को वितरित करने को तैयार थीं। अज़ीज़ून ने अपने मुख्यालय में एक गन बैटरी भी तैयार की थी। ये बैटरी व्हीलर प्रवेश के उत्तर में व राकेट कोर्ट और चैपल ऑफ इज के मध्य में स्थित थी। घेराबंदी के पहले दिन से ही इस बैटरी ने प्रवेशद्वार में गोले दागे व गोलीबारी की। व्हीलर एनट्रेंचमेंट की घेराबंदी के समय वह सैनिकों के साथ थीं।” एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार उन्हें हर समय पिस्तौल पकड़े हुए देखा जा सकता था। भीषण गोलीबारी के बाद भी वह अपने दोस्तों के साथ रहती थीं जो कि द्वितीय रेजीमेंट के घुड़सवार थे। वह ऐसी कई तवायफ़ों में से एक थी जो भारत की आज़ादी के लिए पूरी बहदुरी से लड़ी, कभी पर्दों में रहकर, कभी बिना किसी पर्दे के!
गुमनाम नायिकाएँ
अज़ीज़ुंबाई के अलावा एक और नाम भी है होससैनी, जोकि बीबीघर नरसंहार के प्रमुख साजिशकर्ताओं में से एक थी। इस नरसंहार में 100 से अधिक अंग्रेज महिलाओं व बच्चों की हत्या कर दी गयी थी।
ऐसी ही एक और तवायफ थी गौहर जान, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने के लिए स्वराज कोश में सक्रिय रूप से राशि जमा की थी। विक्रम सम्पत द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘माइ नेम इज़ गौहर जान’ के अनुसार, गांधीजी के अनुरोध पर गौहर जान राशि एकत्रित करने के लिए एक समारोह का आयोजन करवाने को इस शर्त पर तैयार हुईं थीं कि वह खुद इस समारोह में शामिल होंगे। हालांकि गांधीजी इस शर्त को मानने में असमर्थ रहे फिर भी गौहर जान ने जमा की हुई राशि का आधा भाग इस आंदोलन के लिए दान कर दिया।
लता सिंह लिखती हैं, “अज़ीज़ुंबाई जैसी महिलाओं के हिस्सेदारी के बारे में सैकड़ों कहानियाँ होंगी पर उनमें से अधिकतर का रिकॉर्ड नहीं रखा गया। लखनऊ में आंदोलन के वक्त इनकी भूमिका को ‘गुप्त’ व ‘उदार कोषाध्यक्ष’ के रूप में देखा जाता है।
यहाँ वह उन महिलाओं का ज़िक्र करती हैं जो अंग्रेज़ सैनिको के विरुद्ध सड़कों पर उतरीं। घूँघट की आड़ में उनमें से कई खबरियों का काम करती थीं तो कई धनराशि द्वारा इस आंदोलन को सहयोग देती थीं। अवध के आखिरी नवाब वाजिद आली शाह की पत्नी, बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक थीं।
कई लेखों के अनुसार वह शादी के पहले एक तवायफ थीं लेकिन आंदोलन के दौरान उन्होंने अपने निर्वासित पति की जगह ले ली थी। उन्होंने भारतीय सेना को लखनऊ पर कब्जा करने में मदद की थी, हालांकि यह कब्जा अधिक दिन तक रह नहीं पाया।
अपनी सक्रिय भागीदारी के बदले इन तवायफ़ों को कड़े अंजाम भुगतने पड़े। सन् 1900 आने तक इनके सामाजिक व आर्थिक जीवन ने अपनी चमक खो दी थी।
पर इसके बाद भी वे रुकी नहीं। इनके योगदानों का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि किस तरह उनके भीतर भी निःस्वार्थ देश प्रेम भरा हुआ था। असहयोग आंदोलन के दौरान (साल 1920-1922), वाराणसी में तवायफ़ों की एक टोली ने तवायफ सभा बनाकर इस स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। लता सिंह के अनुसार, हुस्ना बाई ने इस सभा का नेतृत्व किया और इसके सदस्यों से विदेशी सामानों का बहिष्कार करने का अनुरोध किया। साथ ही उन्होंने एकजुट होकर गहनों के बजाय लोहे की कड़ियाँ पहनने को कहा। इन सब के बावजूद भी दुनिया ने इन्हें और इनके योगदानों को भूल जाना ठीक समझा।
द कौर्टेसन प्रोजेक्ट द्वारा इनकी कहानियों को सामने लाने का काम करने वाली मंजरी चतुर्वेदी कहती हैं, “हमने कभी सोचा ही नहीं कि तवायफ इतनी महत्वपूर्ण भी हो सकती है कि उनकी कहानियों को लिखा जाए। पर ये कहानियाँ मौखिक कहानियों में प्राचलित हैं।”
इनके कई नाम है – उत्तर में तवायफ, दक्षिण में देवदासी, गोवा में नायिका, बंगाल में बाजी, ब्रिटिश के लिए नौच गर्ल्स फिर भी ये सारे नाम अश्लीलता का पर्याय है। लेकिन, वे सभी एक मजबूत व स्वतंत्र महिलाएं थीं। उनका बौद्धिक व सांस्कृतिक योगदान अपने चरम पर रहा फिर भी यह सब धूमिल होता चला गया और उनकी छवि वेश्या के रूप में ही सिमट कर रह गयी जिसे गौरवशाली इतिहास के पन्नो में जगह नहीं मिल पाई। दरअसल, इन प्रेरणादायक कहानियों को विलुप्त होने देने में हमारा ही नुकसान है।
(साभार – द बेटर इंडिया में प्रकाशित निधि निहार दत्ता का आलेख)