बेटी हैं अभिनेत्री शबाना आजमी
मुम्बई : अभिनेत्री शबाना आजमी की मां शौकत कैफी (90) का निधन हो गया। परिवारजन ने बताया कि शौकत काफी समय से बीमार थीं और उन्होंने अपनी बेटी शबाना की बाहों में आखिरी सांस ली। मशहूर शायर कैफी आजमी की पत्नी को लोग प्यार से शौकत आपा कहकर बुलाते थे। शौकत ने मुज्जफर अली की फिल्म ‘उमराव जान’, एमएस साथ्यु की ‘गरम हवा’ और सागर साथाडी की फिल्म ‘बाजार’ में यादगार भूमिकाएं निभाईं। शौकत आखिरी बार फिल्म ‘साथिया’ (2002) में नजर आईं थीं, जिसमें उन्होंने बुआ का रोल निभाया था। शौकत ने कैफी के साथ मिलकर इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा), प्रोग्रसिव एसोसिएशन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कल्चरल विंग के लिए लम्बे अरसे तक काम किया।
‘कैफी और मैं’ शौकत और कैफी की प्रेमकथा से
शौकत और कैफी की प्रेमकथा और उनके संस्मरणों की किताब ‘कैफी और मैं’ बहुत मशहूर है। बेटी शबाना ने अपने पति जावेद अख्तर के साथ मिलकर इसका थिएटरों में प्रभावी मंचन किया है। इसमें शबाना ने शौकत की जिंदगी और जावेद अख्तर ने कैफी के किरदार को अपने लफ्जों में पिरोया है।
शौकत आपा के किस्से बेटी शबाना की जुबानी:- 50 रुपए और टूटी चप्पल: मां और पिता को याद करते हुए शबाना आजमी ने बीत साल एक कार्यक्रम में 40 रुपए का बड़ा दिलचस्प किस्सा सुनाया था। शबाना ने बताया था कि उनके अब्बा के पास जो भी कमाई होती थी, वे उसे कम्युनिस्ट पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए दे देते थे और अपने पास खर्च के लिए सिर्फ 40 रुपए रखते थे। हमारे स्कूल की फीस ही 30 रुपए लग जाती थी। पैसों की तंगी रहती थी। मम्मी ने घर चलाने के लिए ऑल इंडिया रेडियो में काम किया और फिर पृथ्वी थिएटर से भी जुड़ीं। एक बार की बात है मम्मी को कहीं टूर पर जाना था और उनकी चप्पल टूट गई। उन्होंने गुस्से में अब्बा से कहा कि हमेशा कहते हो कि मेरे पास पैसे नहीं हैं, अब मैं क्या करूं? अब्बा ने चप्पल ली। उसे आस्तीन में छिपाकर ले गए और जब वापस लौटे, तो हाथ में मरम्मत की हुई चप्पल के साथ 50 रुपए भी थे। अम्मी खुश हो गईं और चली गईं। बाद में पता चला कि अब्बा ने अम्मी के एक कार्यक्रम के आयोजकों से उनका ही मेहनताना एडवांस में लाकर उनके हाथ में दे दिया था।
मम्मी चाय की प्याली और अब्बा की नज्म: 2018 में भाेपाल में ‘कैफी और मैं’ प्ले के 200वें शो का ऐतिहासिक मंचन हुआ। इस मौके पर शबाना ने शौकत के किरदार को आवाज देते हुए उनकी लव स्टोरी को इस तरह याद किया – हर रोज सुबह होती है चिड़िया चहचहाती हैं, कभी बादल गरजता है, कभी बारिश की फुहार बरामदे में अंदर आ जाती है। रोज की तरह हमारा मुलाजिम विनोद मेज पर चाय की ट्रे लाकर रख देता है, लेकिन सामने की कुर्सी खाली है, उस पर मेरे कैफी नहीं, जो मेरे हाथ की बनी हुई चाय की प्याली के इंतजार में अपनी कमजोरी के बावजूद कुर्सी पर आकर बैठ जाते थे। अपने कांपते हाथ से चाय की प्याली लेकर मुझे ऐसे देखते कि जैसे चाय नहीं अमृत पी रहे हों। तमाम दिन में यही लम्हें मेरे सबसे खूबसूरत और पुरसुकून लम्हे होते थे।