चुनावी बुखार जोर पकड़ने लगा है और पारा सोशल मीडिया का चढ़ने लगा है। मोदी और राहुल से लेकर मायावती और ममता की बातों के अलावा किसी को कुछ नहीं सूझ रहा..आरोप और प्रत्यारोपों की भाषा और तेज हो रही है। कहने की जरूरत नहीं कि हर प्रत्याशी अपना पसीना बहाने में लगा है मगर चुनाव में जिस तरह से टिकट बाँटे जा रहे हैं और जिनको बाँटे जा रहे हैं, उसे लेकर असन्तोष भी सभी दलों को झेलना पड़ रहा है। ये ऐसा ही है जैसे आप साल भर मेहनत करें और फल आपका सहकर्मी ले जाए…मगर इस चुनाव में बहुत से मुद्दे छूट भी रहे हैं…पर्यावरण और बच्चे…घोषणापत्रों में बहुत पीछे छूटे जा रहे हैं। हम बड़ी -बड़ी बातों पर बात करते हैं मगर छोटी – छोटी जरूरतों पर ध्यान नहीं जाता…स्थिति यह है कि रोजगार और नौकरी का झगड़ा भी शुरू हो गया है….अलबत्ता चुनाव में यह सब बहुत काम आते हैं…चौकीदार, चायवाला..पकौड़ा…चॉप..पता नहीं…यह जंग कहाँ जाकर थमने वाली है मगर एक बात तो समझ में नहीं आ रही है कि छोटे -छोटे स्वरोजगार को नौकरियों की तुलना में हम हेय दृष्टि से क्यों देख रहे हैं? एक तरफ यह कहा जाता है कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता..और दूसरी तरफ हीनताबोध…हम एक यूटोपिया में जी रहे हैं कि देश के हर युवा को नौकरी ही करनी है..कभी आपने उनसे पूछा है कि वह क्या चाहते हैं…कन्वेंशनल रोजगार से अलग हटकर कुछ सोचा जाए और एक शिल्प को उद्योग का रूप दिया जाए तो क्या बुरा है…काम तो वही है, फर्क पैकेजिंग का है…वही पॉपकॉर्न आपको सड़क पर 10 रुपये मे भी महँगा मिलता है मगर हवाई अड्डे पर वही आप 100 रुपये में खरीदते हैं। भारत में शिल्प की कमी नहीं है मगर हीनता बोध के कारण हमने अपने युवाओं को मजबूर कर दिया है कि वे अपने हुनर बक्से में बंद करके रखें।
अगर कोई कुम्हार पॉटरी शिल्प का आधुनिकीकरण करके व्यवसाय आगे बढ़ाए, कोई इंजीनियरिंग का छात्र खेती को आसान बनाने वाले उपकरण बनाए..तो इसमें क्या बुरा है? शहरों में न्यूनतम वेतन पर नौकरी करते हुए अगर कोई युवा गोलगप्पे बेचकर अपने ट्यूशन का खर्च निकालता है तो इसमें आपको आपत्ति क्यों है? इंजीनियरिंग कॉलेजों में हजारों सीटें खाली रहती हैं…डिग्री लेकर निकलने वाले युवाओं के पास प्लान बी का विकल्प रहना चाहिेए और यही हमारे संस्थान नहीं सिखाते…नौकरी करते हुए आप अपने परिवार का पेट भरते हैं मगर अपना काम करते हुए आप 10 लोगों को रोजगार देकर 10 परिवारों की मदद करते हैं और इसके लिए आपको वापस अपने गाँवों की ओर मुड़कर या फिर घरों की परम्परागत जीविका की ओर देखने की जरूरत है। मुझे बड़ा अजीब लगता है जब लोग पढ़े फारसी, बेचे तेल की उक्ति सुनाते हैं….फारसी पढ़कर तेल बेचने में क्या बुराई है…आखिर तेल बेचकर ही बड़ी मिले खड़ी हुई हैं..आप किसी भी सफल उद्योगपति की कहानी उठाइए…उसकी शुरुआत ऐसे ही हुई है..चुनाव आते और जाते रहेंगे…नेता बदलते रहेंगे…कुछ भी स्थायी नहीं है मगर उनके चमत्कारों पर भरोसा करने से बेहतर है कि आप अपनी शक्ति पर विश्वास करें और उस शक्ति का उपयोग एक सच्चे नागरिक की तरह करें….एक सही नेतृत्व जरूर चुनें मगर उसके भरोसे ही न बैठे रहें….और सही नेतृत्व चुनने के लिए जरूरी है कि अपने मताधिकार का प्रयोग करें। राजनीति बेहतर तभी होगी जब आपका सक्रिय हस्तक्षेप होगा..राजनीति से विरक्त होकर बदलाव की उम्मीद करना एक मरीचिका है इसलिए आपको आगे बढ़ने की जरूरत है..मतदान पर्व आरम्भ हो रहा है…..आइए मतदान करें…सशक्त भारत गढ़ें।