लेकिन, 40 साल पहले एक महिला को पुरुषप्रधान व्यवसाय के बारे में कुछ भी नहीं पता था। अपने परिवार के साथ गाँव में एक अच्छी जिंदगी गुजारना ही उसका सपना था। पर किस्मत ने उसे एक ऐसे मोड़ पर लाके खड़ा कर दिया जहा पुरुषप्रधान दुनिया में उसे अपनी भूखी बच्चियों को पालने के लिये यह व्यवसाय करना पड़ा।ये कहानी है भारत की पहली महिला नाई शांताबाई की।
महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के हासुरसासगिरी गाँव में रहनेवाली 70 वर्षीय शांताबाई, हम सभी के लिये एक मिसाल है। विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कर शांताबाई ने एक मुकाम हासिल किया है।
कोल्हापुर जिले के अर्दल गाँव में श्रीपती अपने 4 भाइयो के साथ 3 एकड़ जमीन में खेती-बाड़ी करता था। सिर्फ खेती पर गुजारा मुश्किल था इसलिये खेती के साथ साथ वो नाई का भी काम करता था। कुछ ही दिनों में जायदाद का बटवारा हुआ और 3 एकड़ जमीन सभी भाइयो में बट गयी। जमीन का हिस्सा कम था इसलिये श्रीपती आसपास के गाँव में जाकर नाई का काम करने लगे।
इतनी मेहनत के बावजूद अच्छी आमदनी ना मिलने की वजह से श्रीपति ने साहुकारो से पैसे उधार लेना शुरू किया।
हासुरसासगिरी गाँव के सभापती हरिभाऊ कडूकर ने जब श्रीपती की परेशानी देखी तो उसे हासुरसासगिरी में आकर रहने के लिये कहा। हरिभाऊ के गाँव में कोई नाई नहीं था इसलिये वो ज्यादा पैसे कमा सकता था।
इस तरह शांताबाई और श्रीपती हासुरसासगिरी गाँव में आकर बस गये। अगले दस साल में शांताबाई ने 6 बेटियों को जनम दिया जिसमे से 2 की बचपन में ही मृत्यु हो गयी। दोनों की जिन्दगी आराम से कट रही थी।
पर अचानक सन 1984 में जब उनकी बड़ी बेटी 8 साल की थी और छोटी एक साल से कम उम्र की थी तब दिल का दौरा पड़ने से श्रीपती का देहांत हो गया।
तीन महीने तक शांताबाई दुसरो के खेत में काम करने लगी। उसे दिन में 8 घंटे काम करने पर सिर्फ 50 पैसे मिलते थे, जिससे घर का खर्चा और 4 बेटियों का गुजारा करना मुश्किल था।
सरकार ने उसे जमीन के बदले 15000 रुपये दिये। इन पैसो का इस्तेमाल शांताबाई ने अपने पति का कर्ज उतारने के लिये किया। फिर भी अपने बच्चो को वो दो वक्त का खाना भी नहीं दे पाती थी। तीन महीनो तक वो खेत में काम करती रही और अपने परिवार का गुजारा करती रही। बड़ी मुश्किल से वो बच्चों को खाना खिलाती थी। इतना ही नहीं कभी कभी वो भूखे ही सो जाते थे।परिस्थितियों से तंग आकर आखिर एक दिन शांताबाई अपना आपा खो बैठी और उन्होंने अपनी 4 बेटियों के साथ खुद ख़ुशी करने का फैसला कर लिया।
इस बार भी हरिभाऊ कडूकर उनके लिये भगवान साबित हुये। जब शांताबाई अपने जीवन के इस अंतिम चरम पर थी तब हरिभाऊ अचानक एक दिन उनका हाल चाल पूछने आये और उनकी हालत देखकर उन्होंने शांताबाई को अपने पति का व्यवसाय संभालने के लिये कहा। श्रीपती के मौत के बाद गाँव में दूसरा नाई न होने की वजह से शांताबाई अच्छे पैसे कमा सकती थी।
शांताबाई ये सुनकर हैरान हुयी। भला एक महिला नाई का काम कैसे कर सकती है? पर उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।
शांताबाई कहती है, “मेरे पास सिर्फ 2 रास्ते थे। एक तो मैं और मेरी बच्चीयाँ खुदख़ुशी कर ले या फिर मैं समाज की या लोगो की परवाह किये बिना अपने पति का उस्तरा उठा लूँ। मुझे मेरे बच्चो के लिये जीना था इसलिये मैंने दूसरा रास्ता चुना।”
हरिभाऊ शांताबाई के पहले ग्राहक बने। शुरू-शुरू में गाँव के लोग उनका मजाक उड़ाया करते थे। पर इससे शांताबाई का हौसला और बढ़ता गया। वो अपने बच्चो को पडोसी के पास छोड़कर आसपास के गाँव में जाकर नाई का काम करने लगी।
कडल, हिदादुगी और नरेवाडी गाँव में नाई नहीं था इसलिये वहा के लोग उनके ग्राहक बन गए।
धीरे धीरे शांताबाई की खबर दूर-दूर तक फैल गयी। इतना ही नहीं उस समय के जाने माने अखबार ‘तरुण भारत’ में भी उनके बारे में लिखा गया।
समाज को प्रेरित करने के लिये शांताबाई को समाज रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अन्य कई संस्थाओं ने भी उनहे पुरस्कार और सम्मान दिया।
सन 1984 में वो सिर्फ 1 रुपये में दाढ़ी और केश-कटाई करती थी।
कुछ ही दिनों में उन्होंने जानवरों के बाल कटाना भी शुरू कर दिया जिसके लिये वो 5 रुपये लेने लगी।
सन 1985 में इंदिरा गाँधी आवास योजना के अंतर्गत शांताबाई को सरकार की तरफ से घर बनाने के लिये पैसे मिले।
शांताबाई ने बिना किसी की मदद लिये अपनी चारो बेटियों की शादी बड़ी धूमधाम से की। वो आज 10 बच्चो की दादी है।
70 साल की उम्र में अब शांताबाई थक चुकी है। वो आसपास के गाँव में जा नहीं सकती इसलिये लोग ही अब उनके पास दाढ़ी और कटिंग के लिये आते है।
शांताबाई बताती है “गाँव में अब सलून है। बच्चे और युवक वही पर जाते है। मेरे पास पुराने ग्राहक ही आते है। अब मैं दाढ़ी और कटिंग के लिये 50 रुपये लेती हूँ और जानवरों के बाल काटने के लिये 100 रुपये लेती हूँ। महीने में 300-400 रुपये कमा लेती हू और सरकार से मुझे 600 रुपये मिलते है। ये पैसे मुझे कम पड़ते है पर जिंदगी में मैंने बहूत मुश्किलें पार की है, इसलिए अब थोड़े में ही गुजारा कर लेती हूँ। मुझे पता है कि जरूरत पड़ने पर मैं मेहनत से कमा सकती हूँ।”
शांताबाई कहती है “इस व्यवसाय ने मुझे और मेरे बच्चो को नयी जिंदगी दी है। जब तक मुझमे जान है मैं उस्तरा हाथ में लिये काम करती रहूंगी।”
अपने साहस और लगन को बढ़ावा देने के लिये शांताबाई हरिभाऊ कडूकर को धन्यवाद देती है। मुश्किल घडी में हरिभाऊ ने उसका साथ दिया इसलिये वो उन्हें अपना प्रेरणास्त्रोत मानती है।हरिभाऊ कडूकर – 2008 में 99 वर्ष की आयु में हरिभाऊ की मृत्यु हो गयी। हरिभाऊ के परपोते, बबन पाटील आज भी शांताबाई के घर जाकर उनकी देखभाल करते है
(साभार – द बेटर इंडिया)