अपराजिता फीचर डेस्क
भारतीय राजनीति इन दिनों बदलाव के दौर से गुजर रही है और जाहिर है कि यह बदलाव आसान नहीं है। हर दल में वरिष्ठ नेता हैं…कई ऐसे हैं जिनकी उम्र हो चुकी है मगर अपनी तमाम शारीरिक दिक्कतों के बावजूद सक्रिय हैं। यह सच है कि अपनी पार्टी को खड़ा करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है जिसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता और यही कारण है कि इनका दबदबा रहता है और कोई भी दल या संगठन इनको यह कहने का जोखिम नहीं उठाता कि अब उनको सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए क्योंकि हमारे देश में बुजुर्गों को सम्मान देने की परम्परा रही है इसलिए यह बात कहना ही लोगों को पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा लगता है। हर क्षेत्र में सेवानिवृति की आयु निर्धारित है, फिल्मों में भी उम्र एक सीमा है। लेखन, कला और राजनीति ही ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें आपको उम्र में बाँधा नहीं जा सकता। लेखन और कला के क्षेत्र का चरित्र बहुत व्यक्तिगत होता है, इसमें आपको शारीरिक गतिविधियों पर इतना निर्भर नहीं रहना पड़ता इसलिए यहाँ वृद्धों को परेशानी नहीं होती, उम्र कोई बाधा भी नहीं है मगर राजनीति…? राजनीति का चरित्र दूसरा है…वहाँ आपकी उम्र मायने रखती है और आप इस बात को नजरअन्दाज नहीं कर सकते और न ही करना चाहिए मगर एक अच्छी छवि बरकरार रखने के लिए अधिकतर राजनीतिक दलों ने इसे नजरअन्दाज किया है…नतीजा यह है कि आज भारत के पास अच्छे युवा नेताओं की कमी है..अगर बुजुर्गों ने कुछ छोड़ा भी है तो वह अपने पारिवारिक हितों को सहेजते हुए छोड़ा है..अपनी धरोहर अपने बच्चों को सौंप दी है। हम बात युवा भारत की करते जरूर हैं मगर युवाओं को पर्याप्त भागेदारी देने में यकीन नहीं रखते। यहीं पर कथनी और करनी में फर्क नजर आता है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि लोकसभा में युवा सांसद कहीं अधिक सक्रिय हैं।
दरअसल, भारतीय लोकतन्त्र में राजनीति एक पैतृक व्यवसाय से अधिक कुछ नहीं है। बात कड़वी जरूर है मगर राजनीतिक दल जिस तरह परिवार को अपने राजनीतिक हितों का साध्य मानते हैं, उसे देखकर यह बात ही सही जान पड़ती है। शरद पवाार ने चुनाव न लड़ने का निर्णय लिया मगर वे यह सुनिश्चित करना न भूले कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले इस क्षेत्र में अपनी जगह बना ले। चुनाव न लड़ने का फैसला भी उन्होंने सब कुछ सेटल करने के बाद लिया है। बहुत से नेताओं के लिए तो यह चुनाव उनके राजनीतिक जीवन का अंतिम चुनाव होने जा रहा है और बहुत से लोगों ने पहले से ही हाथ पीछे खींच लिए हैं। सत्ता लिप्सा और अहं, दरअसल आपको बाँधता है और भारतीय नेता इन दोनों से ही जकड़े हैं। हम बात युवा भारत की करते जरूर हैं मगर युवाओं को कमान देने में दिग्गजों को बहुत परेशानी होती है..नतीजा यह है कि पार्टी धीरे – धीरे खत्म होती जाती है। आप माकपा का उदाहरण लीजिए…विमान बोस, बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे नेता अभी भी जमे हैं..इस पार्टी में युवा नेताओं के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है और न ही बताने की जरूरत है कि माकपा कहाँ पर है। तृणमूल के सुदीप बन्द्योपाध्याय ने तो चुनाव लड़ने के प्रति अनिच्छा जाहिर कर चुके हैं मगर विकल्पहीनता और जोखिम लेने से डरने की वजह से पार्टी उनको दोबारा मैदान में उतार चुकी है। असुरक्षित परिवारवाद ने दलों के कार्यकतार्ओं को नाराज तो किया ही, विकल्प भी तैयार नहीं होने दिए और यह धीरे – धीरे भीतरी असन्तोष में तब्दील हो गया है। यह बीमारी भी अधिकतर राजनीतिक दलों में है जबकि हर पार्टी कार्यकर्ताओं को आगे ले जाने और उसके समर्पण का दावा करती है। दरअसल, वयोवृद्ध नेता इस कमजोरी को समझते हैं और अपनी निष्ठा को लेकर टिकट का दावा करने में उनको कोई परहेज भी नहीं है।
सच्चाई तो यह है कि कोई भी पार्टी जनता की जरूरतों से ज्यादा समीकरणों का ध्यान रखती है और यही कारण है कि वयोवृद्ध नेताओं की नाराजगी मोल लेने का साहस कोई नहीं करता। उनको शांति से धीरे – धीरे हटाया जाता है, जो नेता समझदारी से परिस्थिति को आँकते हैं, वे खुद दूरी बना लेते हैं जैसे कि कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी के साथ किया। सलूक तो सीताराम केसरी और पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के साथ भी अच्छा नहीं किया गया..। माकपा ने पार्टी लाइन के नाम पर सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज नेता के साथ किस तरह का व्यवहार किया, यह किसी से छिपा नहीं है।
सत्ता का मोह एक दिन दिग्गजों को दयनीय बनाकर छोड़ता है। यह बहुत असमंजस वाली स्थिति है, जिस पार्टी को खड़ा करने में जोशी, आडवाणी ने जान लगा दी, पूरा जीवन खपा दिया, वहाँ से इनकी उम्मीदें रहना स्वाभाविक है। आप इसे नैतिकता की दृष्टि से गलत बता भी सकते हैं मगर बात अगर भविष्य की हो, कदम आगे बढ़ाने से जुड़ी है तो क्या हम और आप भी इस तरह के फैसले नहीं लेते..नैतिकता और परम्परा की दृष्टि से गलत होने पर भी वह भविष्य और संगठन की बेहतरी के लिए उठाया गया कदम होता है और आडवाणी जी का उद्देश्य भी तो यही रहा होगा…संगठन को मजबूत और बहुत हद तक युवा रखना। भाजपा ने यही किया है, कांग्रेस ने भी यही किया मगर शाह सम्भवतः समय की नजाकत को समझते हैं। आज भाजपा में युवाओं की संख्या बढ़ रही है तो कांग्रेस में घट रही है। मौजूदा लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के 70 साल से अधिक उम्र के सांसदों की संख्या 15वीं लोकसभा की तुलना में 14.2 फीसदी से घटकर 8.8 फीसदी रह गई है। वहीं 25 से 40 वर्ष की उम्र के सांसदों की संख्या 5.8 फीसदी से बढ़कर 7.8 फीसदी हो गई है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की ओजारी इंडिया स्पेंड के आंकड़ों से यह खुलासा हुआ। वहीं विपक्षी पार्टी कांग्रेस में उम्रदराज सांसदों की स्थिति भाजपा के ठीक उलट है। कांग्रेस में युवा सांसदों की संख्या 8.1 फीसदी से घटकर 6.7 फीसदी और बुजुर्ग सांसदों की संख्या 11.9 फीसदी से बढ़कर 20 फीसदी हो गयी है।
कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि कल तक जो पार्टी पूरे राष्ट्र की बात कर रही थी, वह निरन्तर परिवारवाद से होते हुए परिवार में सिमटती चली गयी। जो अच्छे नेता थे, उनको उभरने ही नहीं दिया गया..राहुल गाँधी को युवराज कहा जाता है मगर भारत जैसे लोकतन्त्र में इस शब्द की कोई जरूरत है, ऐसा लगता नहीं है। आज कई नेताओं का यह आखिरी चुनाव होने जा रहा है। एक पीढ़ी धीरे-धीरे बाहर जा रही है और नयी पीढ़ी उसकी जगह ले रही है। तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता, दोनों के निधन के बाद यह पहला आम चुनाव होने जा रहा है। जोशी और आडवाणी को टिकट नहीं मिला। यशवन्त सिन्हा नेपथ्य से खूब सक्रिय रहेंगे। बहरहाल, उनकी भी उम्र इतनी हो चली है कि अगले चुनाव में शायद ही कुछ कर पाएं। पार्टी के 84 वर्षीय नेता शांता कुमार ने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है। महाराष्ट्र के दिग्गज एनसीपी नेता शरद पवार भी इस बार चुनाव न लड़ने की बात कह चुके हैं। उनकी बेटी सुप्रिया सुले और पोते पार्थ पवार का चुनाव लड़ना तय है। पंजाब के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल शायद इस बार चुनाव लड़ें पर उनकी उम्र भी उन्हें अगला चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देने वाली। वैसे वे अपनी विरासत अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को सौंप चुके हैं, ठीक पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की तरह।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चुनाव लड़ना भी रहस्य बना हुआ है लेकिन राजनीति में हाशिये की स्थिति को वे पहले ही स्वीकार कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के फारुख अब्दुल्ला का हाल अलबत्ता बेहतर है, जो अस्सी पार करने के बाद भी श्रीनगर से लड़ने की तैयारी में हैं, हालांकि उनकी पार्टी नैशनल कॉन्फ्रेंस अब बेटे उमर अब्दुल्ला के ही जिम्मे है। मुलायम सिंह यादव मैदान में हैं मगर पार्टी में उनकी उपेक्षा किसी से छिपी नहीं है। यह उनका आखिरी चुनाव हो सकता है। लालू प्रसाद वैसे तो 70 साल के हैं लेकिन बीमार हैं और जेल में हैं। अनुमान है कि जितने मुकदमे उन पर हैं, उनके चलते चुनाव वे आगे शायद ही लड़ सकें। उनके बेटे तेजस्वी यादव की तैयारी में यह बात शामिल है। देखें, नयी पीढ़ी इन कद्दावर नेताओं की जगह कैसे भरती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह काफी समय से गाँधीनगर सीट पर उम्मीदवार बदलना चाहते थे। बताते हैं 75 साल से अधिक उम्र के लोगों को टिकट देने या न देने के निर्णय में भी सबसे.बड़ी बाधा आडवाणी ही थे लेकिन ऑपरेशन बालाकोट ने भाजपा नेतृत्व और प्रधानमंत्री को उत्साह से भर दिया। परिवारवाद भाजपा में भी है, राजनाथ सिंह, मेनका गाँधी जैसे नेताओं की सन्तानें भी पीछे नहीं हैं मगर यहाँ अभी भी आम कार्यकर्ता के लिए जगह है और अनन्त कुमार की सीट पर 28 साल के तेजस्वी सूर्या को टिकट देकर यह बात बताने की कोशिश पार्टी ने की है मगर यह काफी नहीं है। आडवाणी के सामने भी यह प्रस्ताव रखा गया कि वो गाँधीनगर सीट से अपनी बेटी को प्रत्याशी बनाने की सहमति दे दें। लेकिन आडवाणी ने कहा कि, उन्होंने जीवनभर राजनीति में परिवारवाद का विरोध किया है। इसके बाद आडवाणी ने मंतव्य समझकर गांथीनगर से चुनाव न लड़ने की इच्छा जाहिर की और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने प्रधानमंत्री से मशविरा करके उम्मीदवार बदल लिया। अब अमित शाह गाँथीनगर से भाजपा का चेहरा बन चुके हैं। आज भाजपा में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवन्त सिन्हा जैसे नेताओं की स्थिति देखकर आप यह बात कह सकते हैं और हो सकता है कि भाजपा को लानतें भेजें। करिया मुंडा को टिकट नहीं मिला तो उन्होंने खेती करने का फैसला कर लिया मगर सच यह भी है कि यह भविष्य की तैयारी भी कही जा सकती है। आज भाजपा के पास जितने युवा चेहरे हैं तो उनके लिए अवसर हैं मगर कांग्रेस में राहुल और सोनिया जैसे बरगद के सामने तमाम सम्भावनाशील नेताओं की प्रतिभा दम तोड़ रही है। कांग्रेस में गाँधी परिवार के करीबियों की ही चलती है और मध्य प्रदेश व राजस्थान में मुख्यमंत्री के चुनाव में जो नाटक चला, उसे देखकर तो यह बात और पुख्ता हो जाती है। ये तय है कि आज जो जोशी और आडवाणी के साथ हो रहा है, उस स्थिति के लिए शाह – मोदी खुद को भी मानसिक तौर पर तैयार कर रहे हों या क्या पता वे यह नौबत ही न आने दें।
युवा सांसद अधिक सक्रिय हैं और उनकी ही जरूरत है
गौरतलब है कि पहली लोकसभा (1952) में सांसदों की औसत उम्र 46.5 साल थी। 16वीं लोकसभा (2014) में बढ़कर यह 56 साल हो गई है। हालांकि पहली लोकसभा में सदस्यों की संख्या 489 थी, जबकि वर्तमान लोकसभा में सदस्यों की संख्या 545 है। बुजुर्ग सांसदों के मामले में वर्तमान लोकसभा दूसरे स्थान पर है, जबकि पहले पायदान पर 15वीं लोकसभा है। खास बात यह कि युवा भारत में अधिकांश सांसद 56 से 70 साल के बीच की उम्र के हैं। बीते सितंबर माह में जारी इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान लोकसभा में सबसे युवा सांसद की उम्र 28 साल है, जबकि सबसे बुजुर्ग सांसद की उम्र 88 साल है। सांसदों की औसत उम्र 58 साल है. यानी आधे सांसदों की उम्र 58 साल या उससे अधिक है। साल 2011 में भारत की औसत आयु 24 साल थी। वर्तमान लोकसभा में 56 से 70 साल के बीच की उम्र के सांसदों की भागीदारी 44 फीसदी है, जबकि देश की कुल जनसंख्या के हिसाब से ये केवल 8 फीसदी हैं. भारत की कुल जनसंख्या के एक चौथाई लोग 25 से 40 साल के बीच की उम्र के हैं और वे चुनाव जीतने योग्य हैं, लेकिन इस उम्र समूह से दस फीसदी से अधिक सांसद नहीं हैं. उधर, संसद में बुजुर्ग सांसदों (71 से 100 साल) की संख्या 9.6 फीसदी है, जबकि वे देश की कुल जनसंख्या के सिर्फ 2.4 फीसदी हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश सांसद युवा हैं और 41 से 55 साल के बीच की उम्र के सांसद संसद में सबसे अच्छे परफॉर्मर हैं। देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की लोकसभा में सबसे ज्यादा भागीदारी है। इस राज्य से चुनकर आने वाले 63 फीसदी सांसद 56 साल से कम उम्र के हैं।
लोकसभा में केरल से 20 सांसद हैं, लेकिन एक भी सांसद 25 से 40 साल के बीच की उम्र के नहीं हैं। केरल की औसत आयु भी 31 साल है।यहाँ से चुनकर आए 65 फीसदी सांसद 55 साल से अधिक उम्र के हैं. 41 से 55 साल के बीच की उम्र के सांसद 16 वीं लोकसभा में सबसे अच्छे प्रदर्शक भी रहे हैं. संसदीय सत्रों में इनकी उपस्थिति कुल मिलाकर 81 फीसदी रही है, जबकि बुजुर्ग सांसदों की उपस्थिति 76.3 फीसदी रही है। सवाल पूछने, बहस में भाग लेने और निजी विधेयक पेश करने के मामले 41 से 55 साल के बीच की उम्र के सांसद सर्वाधिक सक्रिय रहे हैं। इस उम्र के सांसदों ने सदन में 168 प्रश्न पूछे, जबकि बुजुर्ग सांसदों ने सिर्फ 91 प्रश्न पूछे। संसद में सबसे कम सक्रिय 71 से 88 साल के बीच की उम्र के सांसद रहे हैं. इस उम्र समूह के 34 फीसदी सांसदों ने सदन में दस से भी कम सवाल पूछे।
हकीकत यह है कि युवाओं को निर्णायक भूमिका में न लाकर आप अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं और वयोवृद्ध नेताओं को सोचना होगा कि एक लम्बी पारी उन्होंने खेली है…अब मौका है कि अपने बच्चों को ही नहीं, दूसरों के बच्चों को भी मैदान में खुलकर आने दें…आखिर लोकतन्त्र परिवार के लिए होता नहीं है, वह तो जनता के लिए है, चुनाव भी किसी के अहंकार की तुष्टि या किसी खास व्यक्ति या परिवार को मजबूत करने के लिए नहीं होते…यह जनता का अधिकार है…निष्पक्ष और बेहतर विकल्प देकर ही राजनीतिक दल जनता के दिल में अपनी जगह बना सकते हैं…बाकी पब्लिक खुद समझदार है।
(इनपुट – न्यूज 18 पर प्रकाशित इंडिया स्पेन्ड की रिपोर्ट)