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मैथिली शरण गुप्त
हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा
संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में
वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे।
. विजयदशमी
जानकी जीवन, विजय दशमी तुम्हारी आज है,
दीख पड़ता देश में कुछ दूसरा ही साज है।
राघवेन्द्र ! हमेँ तुम्हारा आज भी कुछ ज्ञान है,
क्या तुम्हें भी अब कभी आता हमारा ध्यान है ?
वह शुभस्मृति आज भी मन को बनाती है हरा,
देव ! तुम को आज भी भूली नहीं है यह धरा ।
स्वच्छ जल रखती तथा उत्पन्न करती अन्न है,
दीन भी कुछ भेट लेकर दीखती सम्पन्न है ।।
व्योम को भी याद है प्रभुवर तुम्हारी यह प्रभा !
कीर्ति करने बैठती है चन्द्र-तारों की सभा ।
भानु भी नव-दीप्ति से करता प्रताप प्रकाश है,
जगमगा उठता स्वयं जल, थल तथा आकाश है ।।
दुख में ही हा ! तुम्हारा ध्यान आया है हमें,
जान पड़ता किन्तु अब तुमने भुलाया है हमें ।
सदय होकर भी सदा तुमने विभो ! यह क्या किया,
कठिन बनकर निज जनों को इस प्रकार भुला दिया ।।
है हमारी क्या दशा सुध भी न ली तुमने हरे?
और देखा तक नहीं जन जी रहे हैं या मरे।
बन सकी हम से न कुछ भी किन्तु तुम से क्या बनी ?
वचन देकर ही रहे, हो बात के ऐसे धनी !
आप आने को कहा था, किन्तु तुम आये कहां?
प्रश्न है जीवन-मरन का हो चुका प्रकटित यहाँ ।
क्या तुम्हारे आगमन का समय अब भी दूर है?
हाय तब तो देश का दुर्भाग्य ही भरपूर है !
आग लगने पर उचित है क्या प्रतीक्षा वृष्टि की,
यह धरा अधिकारिणी है पूर्ण करुणा दृष्टि की।
नाथ इसकी ओर देखो और तुम रक्खो इसे,
देर करने पर बताओ फिर बचाओगे किसे ?
बस तुम्हारे ही भरोसे आज भी यह जी रही,
पाप पीड़ित ताप से चुपचाप आँसू पी रही ।
ज्ञान, गौरव, मान, धन, गुण, शील सब कुछ खो गया,
अन्त होना शेष है बस और सब कुछ हो गया ।।
यह दशा है इस तुम्हारी कर्मलीला भूमि की,
हाय ! कैसी गति हुई इस धर्म-शीला भूमि की ।
जा घिरी सौभाग्य-सीता दैन्य-सागर-पार है,
राम-रावण-वध बिना सम्भव कहाँ उद्धार है ?
शक्ति दो भगवन् हमें कर्तव्य का पालन करें,
मनुज होकर हम न परवश पशु-समान जियें मरें।
विदित विजय-स्मृति तुम्हारी यह महामंगलमयी,
जटिल जीवन-युद्ध में कर दे हमें सत्वर जयी ।।