आज दुनिया में जितनी भी हिंसा हो रही है, वह चाहे दंगों की शक्ल में हो, आतंकवाद हो, या फिर सेनाओं द्वारा की जाने वाली हिंसा, इन सब के पीछे धार्मिक एवं सांस्कृतिक असहिष्णुता अक्सर मुख्य कारक होती है | यह असहिष्णुता घृणा और उन्माद तक पहुँच जाती है और इस उन्माद का सबसे आसान शिकार बनती है – औरत | मानवीय मूल्यों की निर्मम हत्या होने लगती है | जब गोलियां चलती हैं तो इंसान से पहले इंसानियत की छाती छलनी होती है |
इसी विषय पर केंद्रित जूल्स टास्का का नाटक ‘बाल्कन वुमेन’ नब्बे के दशक मे यूगोस्लाविया के विघटन के समय क्रिश्चियन सर्बों व मुस्लिम बोसनियंस के बीच हुए युद्ध में धार्मिक विद्वेष और बदले की भावना से उत्पन्न इंसानी व गैर इंसानी जज़्बों के अंतर्द्वंद्व को अत्यंत मार्मिकता से प्रदर्शित करता है | ‘युद्ध निषेध’ की यह त्रासदी कहीं न कहीं यूरिपिडीज़ के ग्रीक नाटक ‘ट्रॉय की औरते’ से भी प्रभावित है और भारतीय उप-महाद्वीप की स्थितियों के बेहद करीब है | कभी वास्तविक चरित्रों के रूप में, कभी चरित्रों के अंतर्मन के रूप में मनोभावों को उभारने के लिये अज़हर आलम का प्रकाश और मुरारी रायचौधुरी के संगीत का संयोग अदभुत बन पड़ा है |
इस नाटक के असाधारण व तीव्र भावनात्मक स्थितियों व घटनाक्रमों के द्वंद्व को निर्देशक मुश्ताक़ काक ने सभी स्तरों पर एक नई सृजनात्मकता एवं प्रयोगात्मकता दी है | कोरस के अभिनेताओ व अभिनेत्रियों ने नाटक में मौजूद भय, वीभत्स और खौफ़नाक रसों को संप्रेषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है l अजहर आलम और उमा झुनझुनवाला जैसे अनुभवी एवं कुशल अभिनेताओ और हीना परवेज़, सागर सेनगुप्ता, चंद्रेयी मित्र तथा कोरस में अनीता दास, कुमकुम राय, रुपाश्री, शबरीन खातुन, अर्चना भट्टाचार्य, सैबल दत्ता, सतीश चौधुरी, राघव रे, शुभंकर, बिप्लव, अभिषेक मिश्र, जीत गुप्ता आदि के परिश्रम ने इस नाटक को शानदार बनाया है l
नाटक – बल्कान की औरतें
मूल नाटक – द बाल्कन विमेन्स, लेखक – जूल्स टस्का
अनुवाद – उमा झुनझुनवाला
संगीत – मुरारी रायचौधरी
मंच तथा प्रकाश सज्जा – एस.एम. अजहर आलम
डिजाइन तथा निर्देशन – मुश्ताक काक