कोलकाता : आदिवासी महानायक जबरा पहाड़िया यानी बाबा तिलका मांझी अपने 270वें जन्मदिवस पर शिद्दत से याद किए गए। विभिन्न विश्वविद्यालयों के बहुजन युवा प्राध्यापकों, बुद्धिजीवियों एवं शोध छात्रों की तरफ से कलकत्ता विश्वविद्यालय के बेसमेंट हॉल में आयोजित इस कार्यक्रम में तिलका मांझी की याद में ‘‘राइट्स, डिग्निटी एंड मार्जिनलाइजेशन ऑफ आदिवासी इन कंटेम्पररी इंडिया’’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता जादवपुर विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. प्रकाश विश्वास ने की तथा मुख्य अतिथि थे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय कोलकाता केंद्र के प्रभारी डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’। डॉ सुनील ने तिलका मांझी को आज़ादी का पहला लड़ाका बताते हुए कहा कि आदिवासियों का प्रतिरोध हमेशा से सृजनात्मक रहा है। उन्होंने आज के संदर्भ में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को साथ मिलकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरूरत पर जोर दिया। सिदो-कान्हू बिरसा विश्वविद्यालय, पुरुलिया से आए डॉ शशिकांत मुर्मू ने विस्तार से आदिवासियों की समस्याओं को रेखांकित किया और कहा कि इससे लड़ने की जरूरत है। रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के डॉ झंटू बड़ाईक ने तिलका मांझी के आंदोलन को प्रेरणा का प्रतीक बताया। उत्तरपाड़ा कॉलेज के डॉ अबू सलेह ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला से जुड़े संस्मरण सुनाया। महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज के प्राध्यापक डॉ प्रेम बहादुर मांझी ने बंगाल में आदिवासियों की दशा पर विस्तार से प्रकाश डाला। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डॉ प्रकाश बिस्वास ने आज आदिवासियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों की तरफ इशारा किया। उन्होंने कहा कि एक तरफ यह समुदाय जल,जंगल, ज़मीन की लड़ाई लड़ रहा है, दूसरी तरफ आरक्षण के सवाल पर भी इसे जूझना पड़ रहा है। इसके लिए हमें कमर कसना होगा। इस परिचर्चा में मृणाल कोटल, जगन्नाथ साहा तथा डॉ ललित कुमार ने भी हिस्सा लिया। कार्यक्रम का संचालन नसीरुद्दीन मीर ने किया तथा विषय प्रवर्तन बिश्वजीत हांसदा ने किया। नंदलाल मण्डल तथा अशोक हांसदा ने संथाली गीत प्रस्तुत किया।