यूनिसेफ बदलाव के लिए कई सालों से काम कर रहा है। भारत में भी यह संस्था काफी सक्रिय है और जमीनी स्तर पर काम कर रही है मगर कोई भी बदलाव तब ही लाया जा सकता है, जब उसके लिए जमीन पर जाकर काम किया जाए। सामाजिक कार्यकर्ता बन जाना शायद आसान है मगर बने रहना उससे भी ज्यादा मुश्किल है क्योंकि बदलाव के लिए धीरज और कभी हार न मानने वाली जिद जरूरी है। यह बहुत कम लोगों में होता है। मोमिता दस्तीदार ऐसे ही लोगों में शामिल हैं जिन्होंने बदलाव का रास्ता चुना, जोखिम उठाए, चुनौतियों का सामना किया मगर इस तरह कि वो सबको साथ लेकर चलीं। दरअसल वास्तविक परिवर्तन होता भी यही है क्योंकि परिवर्तन का वास्तविक अर्थ सिर्फ तोड़ना नहीं बल्कि उसे सकारात्मक तरीके से रूपांतरित करना है। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए उनको 15 साल हो गये और पिछले कई सालों से वे यूनिसेफ से जुड़ी हैं और इस समय बंगाल में काम कर रही हैं। यूनिसेफ (पश्चिम बंगाल) की सम्पर्क विशेषज्ञ मोमिता दस्तीदार से हमने खुलकर बातचीत की, पेश हैं प्रमुख अंश –
मेरा परिवार मुझे लेकर काफी प्रोटेक्टिव रहा
पिछले 15 साल से काम कर रही हूँ मगर इसकी शुरुआत तब ही हो गयी थी जब मैं स्कूल में थी। मैं स्कूली दिनों में हेल्पेज इंडिया से बतौर को ऑर्डिनेटर जुड़ी थी। यह अनुभव मेरे लिए नजरिया बदलने वाला रहा क्योंकि मैं जिस परिवार से थी, वह मुझे लेकर बहुत ज्यादा प्रोटेक्टिव थे तो मेरे अनुभव भी तब तक सीमित थे मगर हेल्पेज इंडिया के लिए काम करते हुए मैंने बहुत समस्यायें देखीं और करीब से देखा। स्वेच्छा से सेवा कार्य यानि कुछ संस्थाओं के लिए वॉलेंटियर भी बनी और विशेष जरूरतमंद बच्चों और फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों के लिए काम किया और सोशियोलॉजी लेकर पढ़ने का कारण भी यही था कि मैं दूसरों के लिए कुछ करना चाहती थी।
कई बार लगता है, कुछ नहीं किया, बहुत कुछ करना बाकी है
मैंने बहुत से संगठनों और संस्थाओं के साथ काम किया है और कई जगहों पर काम किया है। मीडिया और गैरसरकारी संगठनों से लेकर वर्ल्ड बैंक तक के लिए काम किया है। ओडिशा, राजस्थान, मेघालय, जम्मू कश्मीर में रहकर काम किया है और इससे मैं जमीनी समस्याओं को समझ सकती हूँ। चुनौती यह रही कि हर क्षेत्र की समस्या और स्थिति अलग – अलग रहती है। यूनिसेफ के लिए गुजरात, दिल्ली और गुजरात जैसे राज्यों में रहकर काम कर चुकी हूँ। यूनिसेफ में काम करते हुए हम कभी किसी चीज को अचानक नहीं तोड़ते बल्कि सीमित फ्रेमवर्क में रहकर बच्चों और लड़कियों को इतना जागरूक कर देते हैं कि वे खुद अपने लिए और दूसरों के लिए बात कर सके। हर सामाजिक परिवर्तन समय लेता है और इसके लिए धीरज की जरूरत पड़ती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि अब तक कुछ नहीं कर सके। हमारा काम खत्म नही होता क्योंकि एक समस्या को खत्म करते हैं तो दूसरी समस्या पर ध्यान जाता है और फिर हम उसके लिए काम करने लगते हैं।
दादी माँ ने बहुत मदद की
दरअसल, जब तक मैं शौकिया करती थी तब तक कोई समस्या नहीं थी। मुश्किल तब हुई जब मैंने इसे अपना कार्यक्षेत्र बनाया। तब समझाना बहुत कठिन था मगर मेरी गम्भीरता देखकर मम्मी – पापा भी समझे और बाद में प्रोत्साहित भी करने लगे। हमारा सँयुक्त परिवार है और जब भी मैं किसी खतरनाक जगह पर जाती तो उनकी चिन्ता बढ़ जाती थी। मैं उनको साथ लेकर भी गयी और जब ट्राँसजेंडरों को लेकर काम किया तो उनको लेकर घर भी आ गयी। शुरू में थोड़ी हिचक थी घर में मगर बाद में सब ठीक हो गया और यह मानसिकता बदलने और समझाने में मेरी दादी माँ का बहुत सहयोग मुझे मिला। वैसे भी मैं सकारात्मक रहती हूँ और कई बार अपनी खूबियों और छोटी – छोटी उपलब्धियों के लिए भी खुद को शाबाशी देती हैं…इतना तो किया, अब आगे भी कर लेंगे।
मेरा काम लोगों को साथ लाना है
यूनिसेफ बंगाल में मुख्य रूप से स्वास्थ्य, पोषण, पेयजल, निकासी और बाल संरक्षण को लेकर विभिन्न संगठनों और संस्थाओं के साथ काम कर रहा है। मेरा काम लोगों को साथ लाना है। इस समय हम दक्षिण 24 परगना, मालदा, मुर्शिदाबाद, पुरुलिया में काम कर रहे हैं। कोलकाता में भी काफी योजनायें चल रही हैं और उत्तर बंगाल में उत्तर बंग विश्वविद्यालय के साथ चाय बागान में काम कर रहे हैं। हम यूथ रिपोर्टर तैयार करना चाहते हैं जो अपनी समस्यायें हमें बतायें और हम उनको सरकार तक पहुँचायेंगे। कोलकाता में जेयू के साथ इस तरह का प्रयोग काफी सफल भी रहा है। शीघ्र ही रेडलाइट इलाकों के बच्चों के साथ और काम करेंगे।
एक बच्चे की भी जिम्मेदारी हम उठा लें, तो बड़ी सफलता होगी
इन बच्चों को प्यार की जरूरत है। हममें से अगर सब एक – एक बच्चे की जिम्मेदारी भी उठा ले तो यह एक बड़ी सफलता होगी। बच्चों को सशक्त बनाना हमारी जिम्मेदारी है। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैं दूसरों के लिए काम कर पा रही हूँ और यह मौका मुझे मिला है।