शहर की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी की ओर से भारतीय भाषा परिषद के सभाकक्ष में 23 नवंबर 2016 को शाम पांच बजे “फिल्मों के आईने में सामाजिक नैतिकता” विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। अतिथियों का स्वागत साहित्यिकी की सचिव डा. किरण सिपानी ने किया। प्रमुख वक्ता कवि कथाकार श्री विजय गौड़ ने फिल्मों के दृश्यों के माध्यम से बड़े रोचक ढंग से अपनी बात रखते हुए कहा कि फिल्म अपने आप में एक यथार्थ है। फिल्म में कथा और नाटक दोनों है।फिल्में वैज्ञानिक सत्य को हमारे सामने रखती हैं। नैतिकता एक दृष्टिकोण है ..सामाजिक संरचना को देखने परखने का। एक जमाने में अमीर आदमी बुरा और गरीब अच्छा होता था। फिल्मकार दादा साहब फाल्के, वी शांताराम, राजकपूर, राज खोसला, शक्ति सामंत, सत्यजित रे आदि ने..आवारा, जागते रहो, बूट पालिस, सुजाता, बंदिनी, दो बीघा जमीन, नीचा नगर आदि फिल्मों में इसी तथ्य को उजागर किया गया है। मृणाल सेन की भुवन सोम ने इस गरीब आदमी को बिल्कल नये रूप में सामने रखा।।
विजय गौड़ ने कहा कि हमारी फिल्में लगातार एक हीरो की तलाश करती हैं जो आकर हमें अपनी तमाम मुसीबतों से छुटकारा दिला दे। कभी यह हीरो यंग्री यंग मैन तो कभी पुलिस अधिकारी और आज कोर्ट के रूप में सामने आता है। फिल्मों में सामाजिक नैतिकता के स्वरूप को श्री गौड़ ने फिराक, पिंक ,लक्ष्मी, पार्च्ड, अलीगढ़ और ईरानी फिल्म हाना मरवम लबार्फ के माध्यम से व्याख्यायित किया। उन्होंने कहा कि फिल्मों ने आधुनिकता की संगति में प्रगतिशीलता के नये मानक गढ़े। फिल्में आर्थिक स्वतंत्रता के सवाल को यौनिक स्वतंत्रता तक ले जाती हैं । फिल्में खुद अपने नायक बनाती हैं और खुद ही बदलते समय के साथ उसे तोड़ती भी हैं। आज कोर्ट को नायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
अध्यक्षता करते हुए श्रीमती विद्या भंडारी ने कहा कि फिल्में समाज का आईना होती हैं और जो समाज में घटित होता है उसे ही फिल्में दिखाती हैं।
इस संगोष्ठी में साहित्यिकी परिवार के सदस्यों के अलावा नगर के साहित्यिक अभिरुचि के बहुत से लोग ने शिरकत की। श्री नवल, विमल शर्मा, डा. आशुतोष, अल्पना नायक, इतु सिंह, मोनालिसा मुखर्जी , मीनाक्षी सांगेनेरिया, आदित्य गिरी, बालेश्वर राय आदि ने संगोष्ठी में भाग लिया।
कार्यक्रम का संयोजन और संचालन गीता दूबे और धन्यवाद ज्ञापन वाणीश्री बाजोरिया ने किया।