हम सब जानते हैं कि कोयला हमारे पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक है। इससे कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलता है, साथ ही इसे जलाने पर मरकरी और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे तत्व भी निकलते हैं। जिनसे स्वास्थ्य संबंधी बीमारी होने का खतरा रहता है। इन सब तथ्यों को जानते हुए भी हमारे यहाँ कोयले का खनन और उत्पादन काफी मात्रा में होता है। कोयले के प्लांट्स भारत में 72% बिजली उत्पादन करते हैं। कोयले पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए पिछले कुछ सालों में नवीनकरणीय ऊर्जा की तरफ न सिर्फ सरकार का बल्कि आम लोगों का रुझान भी बढ़ा है। कोयले के विकल्प के तौर पर ‘सफेद कोयला’ बनाने पर जोर दिया जा रहा है। एग्रो वेस्ट यानी कि जैविक कचरा, जैसे भूसी, सूखे छिलके, पत्ते, गोबर आदि से अधिक घनत्व और ऊर्जा वाले ब्रिकेट बनाए जाते हैं। इन ब्रिकेट को ‘सफेद कोयला’ कहते हैं और इन्हें बनाने की प्रक्रिया को बायो-कोल ब्रिकेटिंग कहते हैं!
यह ब्रिकेट जैविक ईंधन है और पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल हैं। ये हल्के होते हैं और साथ ही, इन्हें स्टोर करना आसान है। भारत के अलग-अलग राज्यों में इन ब्रिकेट्स पर शोध हो रहे हैं। ऐसे में, दो इंजीनियरिंग छात्रों ने जूट से ऐसे ब्रिकेट बनाने की पहल की और उन्हें इस इनोवेशन के लिए सम्मानित भी किया गया है।
करण घोराई और कथा सूर अपनी ग्रैजुएशन के पहले साल में थे, जब एक प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए उन्होंने इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया। कोलकाता के नेताजी सुभाष इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे करण और कथा ऐसा कुछ करना चाहते थे जो कि ग्रामीण भारत में बदलाव ला सके।
“हम ग्रामीण इलाकों के लिए कुछ करना चाहते थे पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। मेरे पापा ने हमसे कहा कि सबसे पहले हमें गाँवों में जाकर वहां के लोगों से मिलना चाहिए, तभी हमें वहां की समस्याओं का पता चलेगा,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए 21 वर्षीय कथा ने बताया।
कथा के पिता कमल सूर का कहना था कि यदि उन्हें गाँवों के लिए कुछ करना है तो वहां जाकर उनकी ज़िन्दगी को देखना होगा। बिना वहां गये और सिर्फ शहरों में बैठकर हम गांवों की समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ सकते।
करण बताते हैं कि कथा के पिता की बात सही निकली। उन्हें कोलकाता के आस-पास के गाँवों में जाकर और वहां के लोगों से बात करके न सिर्फ उनकी समस्या समझ आई बल्कि उन्होंने उसका हल भी खोजा।
“हमें वहां पता चला कि बहुत से किसान जूट उगाते हैं। लेकिन समस्या ये है कि उन्हें फाइबर बेचने के लिए तो बाज़ार मिल जाता है लेकिन जूट का सूखा कचरा जैसे कि जूट स्टिक आदि बच जाते हैं। जिन्हें या तो वे जला देते हैं या फिर यूँ ही कचरे के ढेर में डाल देते हैं,” कथा ने आगे कहा। करण और कथा ने अपनी रिसर्च में ये खोजना शुरू किया कि आखिर कैसे जूट स्टिक का सही इस्तेमाल किया जा सकता है? उनका उद्देश्य था कि वे कुछ ऐसा करें जिससे कि किसानों की आय बढ़े और एग्रो-वेस्ट का सही इस्तेमाल हो।
“हमें अपनी रिसर्च से पता चला कि जूट स्टिक बायोडिग्रेडेबल हैं और इन्हें जैविक ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। हमने आगे इस पर काम किया और पता लगाया कि ऐसा क्या करे जिससे कि लोग आसानी से इसे ईंधन की तरह इस्तेमाल कर सकें,” उन्होंने बताया। उन्होंने अपने प्रोजेक्ट में कई शोध किए और आखिरकार उन्हें पता चला कि यदि इन जूट स्टिक को तोड़कर बुरादा बनाया जाए और फिर उस पर सही मात्रा में दबाव लगाया जाए तो वे इसे ब्रिकेट यानी कि सफेद कोयले का रूप दे सकते हैं।
वे बताते हैं कि जब उनका प्लान तैयार हो गया तो उन्हें अपने मेंटर से प्रोटोटाइप बनाने का सुझाव मिला। अब समस्या ये थी कि इसके लिए उन्हें ब्रिकेटिंग मशीन चाहिए थी और वो कोलकाता में मिलना आसान नहीं था। फिर भी उन्होंने अपनी तलाश शुरू की और उन्हें गुजरात की एक कंपनी के बारे में पता चला। ये कंपनी ब्रिकेटिंग मशीन का इस्तेमाल करती है।
कथा और करण ने अपने प्रोजेक्ट के बारे में इस कंपनी के अधिकारियों को ईमेल किया। वे आगे कहते हैं, “कंपनी ने हमसे पहले 80 किलोग्राम रॉ मटेरियल मतलब कि जूट स्टिक भेजने को कहा। वे लोग निश्चिंत होना चाहते थे कि हम वाकई कुछ कर रहे हैं। ये बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि हमें लगा कि अब हम क्या करेंगे?”
लेकिन उन दोनों ने इस चुनौती को भी पार कर लिया क्योंकि उनके कॉलेज प्रशासन ने उनका साथ दिया। अपने इस प्रोजेक्ट के लिए उन्हें कॉलेज से ज़रूरी फंडिंग भी मिली। करण बताते हैं कि उन्होंने गाँवों में जाकर किसानों से बात की और जूट की लकड़ियाँ इकट्ठा करना शुरू किया। ये वाकई हैरत की बात थी कि उन्होंने कुल 110 किलोग्राम जूट स्टिक इकट्ठा की और कंपनी को भेजीं।
फिर जैसे ही उन्हें कंपनी ने अपने यहाँ आकर काम करने की इजाज़त दी, वे दोनों खुद गुजरात पहुँच गये। उन्होंने अपनी आँखों के सामने जूट से ब्रिकेट बनवाये और फिर टेस्टिंग के बाद अपने प्रोजेक्ट को 3M- CII के कम्पटीशन के लिए भेजा।
उन्हें 3M- CII इनोवेशन चैलेंज अवॉर्ड 2019 में प्रोडक्ट इनोवेशन कैटेगरी में सम्मानित किया गया। साथ ही, हर किसी ने उनके इस प्रोजेक्ट की सराहना की।
अपने इस सफेद कोयले की खासियत के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि इसकी कैलोरिफिक वैल्यू लगभग 4000 किलो कैलोरी प्रति ग्राम है जो सामान्य कोयले के बराबर ही है। लेकिन सफेद कोयले में सल्फर जैसा कोई प्रदूषक तत्व नहीं है।
प्रदूषण और ऊर्जा के साथ-साथ, ये किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है। अगर हमारे देश में इसी तरह से सफेद कोयले के उत्पादन पर जोर हो तो खेतों में बचने वाले जैविक कचरे को भी बाज़ार मिलेगा। इससे किसानों को अतिरिक्त आय होगी। साथ ही, पराली जलाने की समस्या से भी देश मुक्त होगा।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए करण और कथा आने वाले समय में अपने इस प्रोजेक्ट को एक सफल व्यवसाय में बदलना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें काफी फंडिंग चाहिए होगी। आखिर में वे बस यही उम्मीद करते हैं कि उन्हें जल्द ही कोई इन्वेस्टर मिल जाए, जिसे उनके प्रोजेक्ट पर भरोसा हो और ये प्रोजेक्ट देश भर के जूट किसानों के लिए बेहतर साबित हो।
(साभार – द बेटर इंडिया)