गाँव, पर्यावरण और विकास पर गाँधी के विचार

भावना मासीवाल
बापू का देश अहिंसा, निस्वार्थ, आत्मबल, स्थानीयता, स्वावलंबन का देश है। वह विचारों से आधुनिक मगर देशज संस्कृति का वाहक है। सिद्धांत से अधिक व्यवहार में जीता है। बापू के यहां आचरण की पद्धति मनुष्य को कर्तव्य मार्ग की ओर ले जाती है। बापू ने अपना संपूर्ण जीवन इसी कर्तव्य मार्ग को समर्पित किया और जन-जन में आचरण की शुद्धता का सिद्धांत दिया। बापू के यहां आचरण की शुद्धता सत्यता, सादगी, स्वावलंबन और नैतिकता है। यह मूल मंत्र आजीवन बापू के साथ रहा और इसी मंत्र को उन्होंने जीवन और राष्ट्र का मंत्र बनाया। बापू कहते हैं कि “हमारी सभ्यता का सार तत्व यही है कि हम अपने सार्वजनिक या निजी, सभी कामों में नैतिकता को सर्वोपरि स्थान दें”। वहीं आज हम इसका अभाव पाते हैं क्योंकि आज लोभ, लाभ और भौतिक सुख ही व्यक्ति के लिए सर्वोच्च है। पूंजीवाद व्यक्ति की इन्हीं इच्छाओं व लालसाओं का परिणाम हैं। बापू ने आधुनिक सभ्यता को अनैतिक व शैतानी सभ्यता कहा और लिखा- “पाश्विक भूख को बढ़ाने की और उसकी स्ंतुष्टि के लिए आकाश–पाताल के कुलावे मिलाने की इस पागल दौड़ की हृदय से निंदा करता हूं। अगर आधुनिक सभ्यता यहीं हैं…तो मैं इसे शैतानी ही कहूंगा” प्रकृति पर स्वामितत्व व अधिकार की लालसा का परिणाम गांधी जानते थे इसी कारण उन्होंने आधुनिक भौतिक सुखवाद की नीतियों का विरोध किया है।
शहरों का निर्माण नहीं था गाँधी का विकास, मास प्रोडक्शन के खिलाफ थे महात्मा गांधी
विकास का आधुनिक मॉडल मनुष्य और प्रकृति दोनों के शोषण पर आश्रित है। विकास, आज विनाश की अवधारणा में तब्दील हो चुका है। गांधी अपने समय में भी विकास की इन आधुनिक नीतियों से वाकिफ थे इसीलिए उन्होंने ‘मास प्रोडक्शन’ के स्थान पर ‘मासेज प्रोड्क्शन’ द्वारा विकास की बात कही। उनके विचारों से विकास केवल उद्योगों को स्थापित करने व बड़े-बड़े औद्योगिक प्लांट लगाने, अधिक से अधिक परियोजनाओं को लागू करने से संभव नहीं था, उनकी विकास योजनाओं में शहरों का निर्माण व विकास भर नहीं था न ही भौतिक समृद्धि मात्र थी, उनके विकास की योजनाओं में गांव भी सम्मिलित थे और पर्यावरण का सहयोग अनिवार्य था। आज इसे ‘सस्टेनेबल डेवलेपमेंट’ के अंतर्गत पढ़ा और पढ़ाया जाता है। बापू विकास और पर्यावरण पर अपने समय में साथ लेकर चलने की बात कर रहे थे। बापू कहते हैं कि “मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा हैं, उसके लिए हैं…। उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए सड़क पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं..”।
बापू के लिए विकास केवल एक ढ़ांचा भर नहीं था बल्कि उसमें मनुष्य का भी विकास था।
बापू के लिए विकास केवल एक ढ़ांचा भर नहीं था बल्कि उसमें मनुष्य का भी विकास था। बापू को अपने समय के औद्योगिक विकास व आधुनिक सभ्यता की इन आधुनिक व नवीन तकनीकों का अंदेशा रहा होगा तभी उन्होंने गांवों को महत्व देते हुए स्थानीयता की बात कही, क्योंकि पूंजीवाद ने सबसे पहले यूरोप और फिर उपनिवेशों में गांवों को तबाह किया। उसकी सभी आर्थिक नीतियां शहरीकरण व औद्योगिक विकास या कहें कि ‘पूंजी’ को केंद्र में रखकर बनाई गई थी। बेरोजगारी और शक्ति के केंद्रीकरण को जिसने बढ़ावा दिया। गाँधी समझ रहे थे कि ‘शहर केंद्रित आधुनिक सभ्यता गांवों को उखाड़ कर ही आगे बढ़ सकती है। इसीलिए वह गांवों पर विशेष ध्यान देते हैं और लिखते हैं–“बंबई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गए हैं। जो औरतें उनमें काम करती हैं उनकी हालत देखकर कोई भी कांप उठेगा”। गांवों से शहरों की ओर बढ़ता पलायन स्थानीयता की नीति के अभाव से उपजा है। वर्तमान समय में बुनियादी सुविधाओं और रोजगार का अभाव पलायन का मुख्य कारण बनकर उभर रहा है।
बापू ने मशीनों का नहीं, उन्हें संचालित करने वाली लोभी मानसिकता का विरोध किया
बापू ने मशीनों का विरोध नहीं किया बल्कि उसे संचालित करने वाली लोभी और स्वार्थी मानसिकता का विरोध किया है। क्योंकि इन्हीं ने विकास की नीतियों में गांव के गांव उजाड़ उन्हें औद्योगिक क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया हैं। विकास के नाम पर सारी धरती सीमेंट से भर दी। इसका भयानक प्रभाव बदलते पर्यावरण पर देखा जा सकता है। आज देश ही नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में जल, जंगल और जमीन को बचाने का संघर्ष चल रहा हैं। यह जनता की समाजिक, सांस्कृतिक व सामुदायिक धरोहर हैं। दुर्भाग्यवश यह वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को संचालित करने वाली ताकतों के हाथों में हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था या आधुनिक सभ्यता ने पूरी दुनिया में फासीवाद को जन्म दिया है, जिससे पूरी दुनिया सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संकटों से जूझ रही हैं।
गांधी समझ रहे थे कि ‘शहर केंद्रित आधुनिक सभ्यता गांवों को उखाड़ कर ही आगे बढ़ सकती है।’
आधुनिक विकास कि नीतियों ने पूंजी के संरक्षण को बढ़ावा दिया। पूंजी के संरक्षण ने उपनिवेशवादी नीतियों को बढ़ावा दिया। इसी ने प्राकृतिक संपदा पर अधिकार के प्रश्न को बढ़ावा दिया। इसी अधिकार और स्वामितत्व के प्रश्न ने हिंसा को वैश्विक धरातल पर शक्ति का सबसे बड़ा हथियार बना दिया। आज विकसित राष्ट्रों का शक्ति के बल पर विकासशील व कमजोर राष्ट्रों पर अतिक्रमण कर उनकी प्राकृतिक संपदा पर स्वामितत्व स्थापित करने की बढ़ती अधिकार नीति इसी का परिणाम हैं फिर चाहे वह 19 वीं शताब्दी में यूरोप की ‘गुआनों’ की खास जरूरत हो जिसने उस पर कब्ज़े की राजनीति को अपनाते हुए उसके उर्वरक के प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग अपने हित में किया। फिर चाहे वह 21वीं शताब्दी का ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ का समझौता हो जिसके तहत विकासशील देशों पर ऊर्जा के कम खपत का दबाव डाला जाना हैं दूसरी तरफ सर्वाधिक ऊर्जा के उपभोगी विकसित राष्ट्रों द्वारा तटस्थ भूमिका निभाते हुए कोई स्वीकृति नहीं देना है या अमरीका का ईरान, ईराक व सीरिया पर हमला। जिनके पीछे के कारण जो भी रहे हो परंतु हिंसा उस पर अधिकार का प्रमुख शस्त्र रहा हैं। इसी तरह नदियों पर स्वामित्व का प्रश्न फिर चाहे वह चीन और भारत के मध्य ब्रहमपुत्र नदी पर बिजली परियोजना का विवाद हो या पाकिस्तान और भारत के मध्य ‘झेलम’ नदी विवाद हो। ये सभी मुद्दे आज प्रकृति पर स्वामितत्व के प्रश्न को उजागर करते हैं। प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता व अधिक से अधिक उपभोग की लालसा ने अधिकार को बढ़ावा दिया हैं। अधिकार सुख ने शस्त्रों के निर्माण व सैन्यकरण की नीतियों को जन्म दिया जिसने हिंसा को बढ़ावा दिया हैं। राष्ट्रों के मध्य शक्ति केन्द्रीकरण की होड़ और अधिक से अधिक शस्त्रों का निर्माण आज स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे रहा हैं। भले ही हम प्रथम व द्वितीय विश्व युद्धों के परिणामों से गुजर चुके हैं जिसमें 1918 में जर्मनी की हार के साथ प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति की घोषणा होती हैं साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि भी तैयार होती हैं। वही स्थिति आज की है दो विश्वयुद्धों का दंश झेलने के उपरांत भी आए दिन किसी न किसी राष्ट्र द्वारा शस्त्र निर्माण व परीक्षण की खबर देखी व सुनी जा रही हैं। शस्त्रों का यह बढ़ता प्रयोग परमाणु और न्यूक्लियर शक्ति के रूप में देखा जा सकता हैं। जो प्रकृति पर दबाव डाल रहा है और उस पर अतिक्रमण को बढ़ा रहा हैं। जिसका प्रभाव तीसरे विश्वयुद्ध की रूपरेखा का निर्माण है।
गाँधी का मनुष्य को उपभोग के नियमन और इच्छाओं के नियंत्रण का संदेश आज मानवता की रक्षा के लिए पर्यावरणवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत बनकर उभर रहा हैं। गांधी ने लिखा जो लोग तलवार के साथ जीते हैं तलवार द्वारा ही मारे जाते हैं
आज इसी से विश्व में हिंसा को बढ़ावा मिला। हिंसा चाहे कोरिया में हो या सीरिया में या अन्य किसी भी राष्ट्र में। परिणाम मनुष्य जाति का विनाश ही है। गांधी लिखते हैं ‘…जो लोग तलवार के साथ जीते हैं, वे लोग तलवार द्वारा ही मारे भी जाते हैं।…मैंने अहिंसा का रास्ता तो इसीलिए चुना हैं क्योकि मैं शस्त्रों की निष्फलता को पूरी तरह से समझ चुका हूं’। आज के भूमंडलीकरण को हम विश्व ग्राम की परिकल्पना से जोड़ कर देखते हैं तो उसके लिए विकास केवल उत्पादन व मुनाफे तक ही सीमित हैं। इस सीमित दृष्टि ने ही आर्थिक मंदी की स्थिति को पैदा किया हैं जिस पर गांधी का मानना था कि ‘मशीनीकरण वहां ठीक हैं जहां काम की तुलना में काम करने वालों की कमी हो। उस स्थिति में जबकि काम की अपेक्षा उपलब्ध श्रमिकों की संख्या ज्यादा हो, जैसा कि भारत में है’ आर्थिक असमानता, मंदी और बेरोज़गारी को बढ़ाता हैं। इसका अन्य कारण विकसित राष्ट्रों द्वारा भरपूर उत्पादन किया जाना हैं और तीसरी दुनिया जिसे विकासशील और गरीब राष्ट्रों के रूप में जाना जाता है, उनके बाज़ारों में बेचना हैं। भविष्य में संभावित इस चुनौती से निपटने के लिए गांधी ने स्थानीयता का समर्थन करते हुए स्थानीय स्तर पर माल के उत्पादन तथा उपभोग पर बल दिया और कहा-‘जब माल का उत्पादन तथा उपभोग दोनों ही स्थानीय स्तर पर होने लगेंगे, तब किसी भी कीमत पर उत्पादन बढ़ाने की होड़ रूकेगी और हमारी वर्तमान अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा’ इसका उदाहरण क्यूबा हैं। क्यूबा की अर्थव्यवस्था पूर्णत सोवियत यूनियन पर आश्रित थी, जो सोवियत यूनियन के विघटन के पश्चात चरमराती हैं। ऐसी स्थिति में क्यूबा वैश्विक विकास की दौड़ से निकल स्थानीय विकास की नीतियों को अपनाता हैं व नियोजित तरीकों से स्थानीय स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा देता हैं। इस तरह क्यूबा स्वयं अपनी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाकर विकास की नई राह को अपनाता हैं। बापू का स्थानीयता व गांवों के प्रति लगाव अर्थव्यवस्था के इन्हीं परिणामों की देन है जिनकी उन्हें भविष्य में संभावना थी।
गांधी का मनुष्य को उपभोग के नियमन और इच्छाओं के नियंत्रण का संदेश आज मानवता की रक्षा के लिए पर्यावरणवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत बनकर उभर रहा हैं। इसका कारण प्रकृति पर मनुष्य की अत्यधिक निर्भरता और अंध विकास की नीतियां हैं। ऐसा नहीं हैं कि गांधी ने आधुनिक सभ्यता के अस्तित्व को ही नकारा हो उन्होंने कुछ खास बिंदुओं पर इसका विरोध किया है। साथ ही यह भी माना की पश्चिम में ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें ग्रहण करने से हमारा लाभ हो सकता हैं। इसलिए हमें अपने ज्ञान और बुद्धि के सभी दरवाजे खुले रखने चाहिए। गांधी कहते हैं कि “मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर से दीवारों से घिरा हो और उसकी सभी खिड़किया बंद हों। मैं चाहता हूँ कि सभी देशों कि संस्कृतियों की सुवासित वायु मेरे घर के चारों ओर बहे। लेकिन मैं ऐसी किसी वायु से अपने पांव नहीं उखड़ने दूंगा। मुझे औरों के घर में दस्तन्दाज, भिखारी या गुलाम बनकर रहने से इंकार हैं।” इसी तरह वह मशीनों के प्रयोग व प्रगति का विरोध नहीं करते ना ही विकास को अनावश्यक मानते हैं बल्कि उनका मानना हैं कि ‘मशीनों ने ऐसी कोई गड़बड़ी नहीं की हैं जिसे सुधारा न जा सके। दरअसल जरूरत तो यह हैं कि दिमागी सोच को ठीक किया जाए।’ गांधी का स्थानीयता, ग्राम स्वराज्य व स्वदेशी विकास की नीतियों का उद्देश्य एक ओर गांवो में कुटीर उद्योगो व हस्तशिल्प कौशल को बढ़ावा देना व गांव के हर व्यक्ति को रोज़गार उपलब्ध कराना था। इसका परिणाम गांवों से शहरों की ओर रोज़गार के सिलसिले में बढ़ते पलायन को कम करना व गांवों में परिवार व उनकी संस्कृति को बचाए रखने का प्रयास था। इसके साथ ही शहरों में बढ़ती जनसंख्या व बेरोजगारी की समस्या को नियंत्रित कर अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करना भी था।
गांधी का आत्मनियंत्रण, अहिंसा व नैतिकता का मंत्र मनुष्य व राष्ट्र के मध्य बढ़ती हिंसा को कम कर सकता है। गांधी कहते कि ‘प्रत्येक अधिकार का जन्म कर्तव्य की कोख से ही होता है इसलिए दूसरों का भी इस अधिकार का उपभोग करना संभव हैं, इसलिए हरएक को अपने अधिकार का उपयोग उसमें अभिप्रेत कर्तव्य का भान रख कर करना चाहिए’। ‘Your liberty of swing your hand ends where tip of my nose begins’ यदि प्रत्येक व्यक्ति व राष्ट्र अपनी स्वतन्त्रता की सीमाओं से परिचित हो व उनकी स्वतंत्रता अन्य की स्वतन्त्रता को बाधित न करे। ऐसे में हिंसा स्वत: ही समाप्त हो सकती हैं।
(यह आलेख अमर उजाला से लिया गया है)

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