ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को समाज में तो भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है, सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक जगहों पर भी उनके साथ कई बार वही रवैया अपनाया जाता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के अपने एक आदेश में ट्रांसजेंडर्स को कॉलेजों और सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करते वक्त ‘अन्य’ कैटिगरी के तहत आवेदन करने की सुविधा प्रदान कर दी है, लेकिन हकीकत में अभी इसका अनुपालन सही तरीके से नहीं हो पाया है, तभी तो पश्चिम बंगाल की रहने वाली ट्रांसजेंडर अत्री कर जैसे लोगों के लिए बंगाल पीसीएस और यूपीएससी की परीक्षा देने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है।
अत्री को काफी कोशिशों के बाद बंगाल पीएससी के एग्जाम में बैठने की इजाजत मिली। 28 वर्षीय अत्री पेशे से शिक्षिका हैं। वह सिविल सेवक बनना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने तैयारी की। लेकिन 2017 में यूपीएससी का फॉर्म भरते वक्त वे हैरत में पड़ गईं। उन्होंने देखा कि फॉर्म में लिंग वाले विकल्प में सिर्फ पुरुष और स्त्री का ही कॉलम है। ऐसा ही पीसीएस की परीक्षा में भी हुआ था। बंगाल लोक सेवा आयोग ने सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया था। अत्री लोक सेवा के अधिकारियों के पास अपनी शिकायत लेकर पहुंचीं, लेकिन उनकी समस्या का समाधान नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया। उन्होंने रेलवे में एक पद के लिए भी फॉर्म भरा था, जिसमें महिला और पुरुष के साथ ‘अन्य’ का भी विकल्प था। वहां पर हालांकि उन्हें जनरल कैटिगरी में रख दिया गया। अत्री इन दोनों मामलों को लेकर कोलकाता हाई कोर्ट पहुंचीं। कोर्ट ने बंगाल लोक सेवा आयोग और रेलवे चयन बोर्ड को फटकार लगाई। कोर्ट ने बंगाल लोक सेवा आयोग से कहा कि वह ‘अन्य’ का विकल्प उपलब्ध करवाए और रेलवे चयन बोर्ड अत्री को आरक्षित वर्ग में रखे। इस साल 29 जनवरी को पीसीएस की परीक्षा में अत्री को बैठने का मौका मिला। वह बंगाल की पहली ट्रांसजेंडर हैं जिसे सिविल सर्विस एग्जाम में बैठने का मौका मिला है। इसी के साथ ही वह 2018 की यूपीएससी की सिविल सर्विस प्रीलिम्स की परीक्षा में भी बैठेंगी।
वह रेलवे की परीक्षा देने वाली भी पहली ट्रांसजेंडर थीं। वह बताती हैं कि इस छोटे से काम के लिए उन्हें काफी लंबा संघर्ष करना पड़ा। पहले उन्होंने लोक सेवा आयोग के चक्कर लगाए, लेकिन वहां के अधिकारी उन्हें सिर्फ आश्वासन देते रहे। इसके बाद मजबूर होकर उन्हें कोर्ट का रुख करना पड़ा। उन्होंने मानवाधिकार कानून नेटवर्क की मदद ली और कलकत्ता हाई कोर्ट में याचिका दायर की। कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया। वह कहती हैं कि इस पूरे काम में काफी लंबा समय लगा और उन्हें मुश्किल भरे दौर देखने पड़े। कई बार तो ऐसा भी लगा कि धैर्य जवाब दे जाएगा और वह यह नहीं कर सकेंगी।
हुगली जिले के त्रिवेणी में रहने वाली अत्री एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका हैं। अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए उन्हें स्कूल को भी सम्भालना करना पड़ा। कोर्ट पहुंचने के लिए उन्हें पांच घंटे का सफर करना पड़ता था और स्कूल को भी देखना पड़ता था। अत्री इंग्लिश ऑनर्स में ग्रैजुएट हैं। एक कोचिंग संस्थान ने उन्हें मुफ्त में सिविल सर्विस की कोचिंग कराने का भी वादा किया था, लेकिन कानूनी लड़ाई के बीच में वह भी छूट गया। वह कहती हैं कि अएगर एक पढ़े लिखे इंसान को अपने हक के लिए इतना संघर्ष करना पड़ता है को बिना पढ़े-लिखे ट्रांसजेंडर्स को किन हालातों में जीना पड़ता होगा।