वनिता वसन्त
कोलकाता शहर के विधान सरणी के ट्राम लाइन से ट्राम गुजर रही थी। मुझे धर्मतल्ला जाना था। 5 नम्बर की ट्राम आई और मैं उसमें चढ़ गई। कुछ देर बाद टिकट लेने के लिए कंडेक्टर मेरे पास आया मैंने पांच रूपए उसके आगे बढ़ा दिए। उसने मुझे टिकट पकड़ा दिया। पास की ही सीट पर बच्ची को लेकर एक मां बैठी थी।
उसने सौ रुपए का नोट पकड़ाया और दो टिकट काटने को कहा। ऐसे में कण्डेक्टर भडक़ गया। उसने कहा खुदरा पैसा (छुट्टा पैसा) दो। सब चढ़ जाते हैं और बड़ा-बड़ा नोट पकड़ा देते हैं। हिन्दी बांग्ला मिलाकर बोल रहे केंडेक्टर के गुस्से से महिला खबरा गई। याचक के रूप में कहा भैया एक ही नोट है। प्लीज दे दीजिए टिकट। उसने कहा कि उसके पास भी खुदरा पैसे नहीं है। कन्डेक्टर ने कहा आप उतर जाइए। खुदरा मिलने के बाद दूसरी ट्राम में चढ़ जाइएगा। कन्डेक्टर को लग रहा था कि महिला के पास छुट्टा पैसे है पर वह सौ का नोट खुदरा करवाना चाह रही है। दबाव बनाने पर वह खुदरा जरूर निकालेगी।
महिला रुआंसी हो गई थी उसे मेडिकल कालेज में जाना था बच्ची के इलाज के लिए। उसे रास्ते की भी ज्यादा जानकारी नहीं थी। ट्राम बिल्कुल ही उस्पताल के पास पहुंचाता। मैं देख रही थी। फिर अचानक ही मेरा हाथ पर्स में गया और दोनों का टिकट मांगा। महिला और भी शर्म से लाल हो गई। वह ना – ना कहने लगी। मैंने कहा कि कोई बात नहीं मैडम जी। पृथ्वी गोल है। कही न कही मिल ही जाएंगे तब आप मेरा उधार चुका देना। महिला ने धन्यवाद दिया। बात कुछ आगे बढ़ती तभी मेडिकल कालेज आ गया और वह उतर गई। उतरकर वह ट्राम को जाते हुए देख रही थी। मैंने हल्के से हाथ हिला दिया।
घटना को सालों हो गए थे। मैं इस घटना को लगभग भूल ही गई थी। आफिस टाइम था बस पूरी तरह से भीड़ से भरी हुई थी। किसी तरह से थोड़ी सी जगह लेकर मैं खड़ी थी। उसी वक्त बस में एक महिला बच्चे को लेकर चढ़ी। गोद में बच्चा था। वह संतुलन नहीं बना पा रही थी। इसके-उसके ऊपर गिर रही थी। अचानक एक जगह पर भीड़ उतरने लगी। वह भी लपककर उतर गई। मैं खाली मिली सीट पर बैठ गई। अचानक मैंने देखा मेरे बैग की चैन खुली है और अन्तर रखा पैसों का पर्स गायब है।
तभी कन्डेक्टर आया और टिकट मांगने लगा। मैं बैग के इधर-उधर खाने को देखने लगी। पर्स तो था नहीं किसी कौने में भी कोई नोट नहीं मिला। झेंप गई। कहा भाई मेरा पर्स चोरी हो गया। कन्डेक्टर को लगा जैसे मैं झूठ बोल रही हूं। तभी पास में बैठी महिला ने कहा – हां वह बच्चे को लेकर चढ़ी थी वह चोर है। हर रोज का वहीं काम है। बस वाले जानते हैं फिर भी चढऩे देते हैं। मैं चुपचाप बस से उतरने वाली थी क्योंकि पैसे नहीं थे तभी एक महिला ने हाथ बढ़ाते हुए मेरा टिकट दे दिया। मैं उसकी ओर बेबस नजरों से देख रही थी।
चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई। उसने मुस्कुराते हुए कहा कोई बात नहीं, कभी न कभी फिर इसी बस में हमारी मुलाकात हो ही जाएगी तब आप मेरा टिकट ले लेना। मुझे एकाएक सालों पहले वाली घटना याद आ गई। संसार भी समुद्र की तरह ही है जो भी आप फेकेंगे वहीं आप को लौट देगा। मेरे चेहरे पर पर्स खोने के दर्द के स्थान पर विश्वास और प्रेम का भाव दिख रहा था। वह महिला उतरने लगी। मैं बस की खिडक़ी से मुस्कुराते हुए उसे जाते हुए देख रही थी…..उसने हल्के से हाथ हिला दिया।