सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि गरिमा के साथ मौत एक मौलिक अधिकार है। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने निष्क्रिय इच्छा मृत्यु और लिविंग विल को कानूनन वैध ठहराया है। इस संबंध में अदालत ने विस्तृत दिशानिर्देश भी जारी करते हुए कहा है कि जब तक सरकार इस संबंध में कानून नहीं बना देती, तब तक ये दिशानिर्देश लागू रहेंगे।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने 2005 में कॉमन कॉज नामक एनजीओ द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। याची की ओर से पेश मशहूर अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने दलील दी थी कि मेडिकल एक्सपर्ट की राय में मरीज के ठीक होने की संभावना खत्म हो चुकी हो तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली से हटाने की अनुमति दी जानी चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो उसकी यंत्रणा बढ़ती ही जाएगी। सरकार ने भी निष्क्रिय इच्छा मृत्यु का समर्थन किया। याची और सरकार की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने पिछले साल 11 अक्तूबर में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ ने 42 साल तक कॉमा में रही अरुणा शानबाग के मामले में सुनवाई करते हुए इच्छा मृत्यु की अनुमति दे दी थी, लेकिन इसके संबंध में कोई कानूनी प्रावधान न होने के कारण स्थिति स्पष्ट नहीं हुई थी। ताजा फैसले में गरिमा के साथ मृत्यु के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल कर लिया गया है, जो हर नागरिक को जीने का अधिकार देता है।
अहम साबित हुआ अरुणा शानबाग केस
मरते हैं आरजू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती, मिर्जा गालिब के इस शेर का उल्लेख करते हुए जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने 2011 में अरुणा शानबाग मामले में सुनवाई करते हुए निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की इजाजत दी थी। बाद में संसद से आईपीसी की धारा 309 (आत्महत्या की कोशिश) को खत्म करने की सिफारिश की थी।
करीब छह साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु को मंजूरी दे दी और इसे कानूनी जामा पहनाने की लड़ाई में अरुणा शानबाग का केस अहम मोड़ साबित हुआ। 7 मार्च, 2011 को आए इस फैसले ने ठीक न होने की हालत में पहुंच चुके मरीजों एवं उनके परिजनों को राहत प्रदान करते हुए विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु की अनुमति दी। मालूम हो कि मुंबई के किंग एडवर्ड्स मेमोरियल अस्पताल में नर्स अरुणा शानबाग के साथ 1973 में उसी अस्पताल के सोहनलाल वाल्मीकि नाम के वार्ड बॉय ने बलात्कार किया था। इसके बाद कुत्तों को बांधने वाली जंजीर से गला घोंटकर उसकी जान लेने की भी कोशिश की। दिमाग में ऑक्सीजन की सप्लाई न पहुंचने के कारण वह कॉमा में चली गई और 42 साल बाद 18 मई, 2015 को उसकी मौत हो गई।
हालांकि इससे पहले 26 अप्रैल, 1994 को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने भी इच्छा मृत्यु का समर्थन करते हुए आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाने) को असंवैधानिक करार दिया था। पीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार के साथ मरने का अधिकार भी मौलिक अधिकार के रूप में निहित है लेकिन इसके दो साल बाद 21 मार्च, 1996 को पांच जजों की संविधान पीठ ने ज्ञान कौर बनाम भारत सरकार के मामले में इस फैसले को पलटते हुए कहा कि इच्छा मृत्यु और किसी की मदद से आत्महत्या देश में गैरकानूनी हैं।