मौश्री को प्राप्त हो चुके हैं ये सम्मान
वर्ष 2012 में बेस्ट इम्पलाई इन डिसएबल्टिज फिल्ड स्टेट अवार्ड (फीमेल कैटगरी)
वर्ष 2014 में बेस्ट इम्पलाई इन इंडिया नेशनल अवार्ड (फीमेल कैटगरी)
वर्ष 2015 में आनन्द सम्मान
वर्ष 2019- दिशा सम्मान
“खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।’ यह वह पँक्तियाँ हैं जो किसी में भी जोश भर दें मगर इस जोश के लिए भी हौसलों की जरूरत पड़ती है। वह हौसला जो अन्धेरे को भी जगमगाती रोशनी बना दे। आज हम आपको ऐसी ही एक ओजस्विनी से मिलवाने जा रहे हैं और यह प्रेरक कहानी लाये हैं पत्रकार दीपक राम। यह लेख ओजस्विनी मौश्री वशिष्ट से उनके साक्षात्कार पर आधारित है।
हावड़ा के सलकिया की रहने वाली मौश्री बचपन से ही नेत्रहीन हैं मगर उनका हौसला हमेशा रोशनी से भरा रहा। शायद यही कारण है कि उन्होंने अपने लक्ष्य के लिए सदा प्रयास किया और नेत्रहीनता को इसके बीच कभी आने नहीं दिया। जब चिकित्सकों ने हाथ खड़े कर दिये और मौश्री के अभिभावकों को उनकी पढ़ाई बंद करने की नसीहत दी, तब भी मौश्री ने हिम्मत नहीं हारी और उनके इस जीवन युद्ध में उनको हमेशा उनके पिता का साथ मिला। मौश्री को घर बैठना गवारा नहीं था। उसने जीवन की पटरी पर सरपट दौड़ लगाने के लिए शिक्षा को ही हथियार बनाया। यही कारण है कि आज मौश्री को किसी के सहारे की जरूरत नहीं। वह अपने सपने को जी रही है। अपनी पढ़ाई की बदौलत ही आज मौश्री को किसी पहचान की जरूरत नहीं है। वह आज एक प्रोफेसर बन बच्चों को कानून का ज्ञान दे रही हैं। दरअसल मौश्री को रेटिना पिगमेंटोसा नामक आँख की एक गम्भीर बीमारी है जिसका पता मौश्री के 6 वर्ष की आयु में ही चला था। साल 1997 था जब मौश्री के आँखों के इस रोग का पता चला था। इसके बाद जीवन में अंधकार ही नजर आ रहा था। माइनस 10 पावर के चश्मे के सहारे मौश्री ने जैसे-तैसे अपनी माध्यमिक तक की पढ़ाई तो पूरा कर ली, लेकिन इसके बाद दोनों आँखों की रोशनी पूरी तरह चली गयी। इसके बाद ही मौश्री के जीवन की असली जंग शुरू होती है।
मौश्री ने बताया कि माध्यमिक की परीक्षा के बाद दोनों आँखों की रोशनी पूरी तरह चले जाने के बाद इलाज कहीं नहीं हो रहा था। कोलकाता के एक से बढ़कर एक नेत्र चिकित्सकों के पास पहुँचे किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। चिकित्सक मात्र यही कहते रहे कि रेटिना पिगमेंटोसा का कोई इलाज नहीं है। इतना ही नहीं चिकित्सकों ने मौश्री की पढ़ाई बंद करवाने की नसीहत भी दे डाली। मौश्री बताती हैं, ‘इस दौरान हमें हौसलों को बढ़ाने वालों की जरूरत थी किन्तु मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हालाँकि हमने हिम्मत नहीं हारी। घर वालों का सहारा मिला पढ़ाई जारी रखी।’
पूरी किताब करनी पड़ती थी रिकार्ड
1997-98 का समय था जब टेप-कैसेट का दौर था। पढ़ाई को जारी रखने के लिए पापा ब्लैंक कैसेट यानी खाली कैसेट खरीद कर लाते औैर पढ़ाई की पूरी किताब इस कैसेट में रिकार्ड की जाती थी। मौश्री ने बताया कि उसने कभी भी सजेशन के सहारे पढ़ाई नहीं की। पापा और मामा जब किताब को कैसेट में रिकार्ड कर देते तो उसे सुन-सुन कर याद कर लेती थी। याद तो कर लेती लेकिन इसके बाद भी परीक्षा में लिखने की होती थी समस्या। हालाँकि इससे भी निपटने के लिए हमने एक लिखने वाले यानी राइटर का सहारा लेना पड़ता था।
मौश्री को कई कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। स्थिति ऐसी थी कि जब रोग का इलाज नहीं हो पा रहा था तो कोलकाता के सभी चिकित्सकों ने हाथ खड़े कर दिये थे और मौश्री के अभिभावकों को उस पर और खर्च न करने तक की नसीहत दे डाली थी और यह भी कह डाला था कि वे उसे शिक्षा न दें। इतना ही नहीं चिकित्सकों ने ये भी बोला था कि बेटी पर खर्च करने के बजाय उसके नाम पर कुछ पैसे जमा कर रखें मगर मौश्री के पिता तमाम बाधाओं के बावजूद अपनी बेटी के साथ खड़े रहे। वह बताती हैं, “इसके बाद हम इलाज के लिए चेन्नई के एल.जी.प्रसाद आई इंस्टीट्यूट गये और वहाँ के चिकित्सकों ने मौश्री की शिक्षा जारी रखने को कहते हुए हौसला बढ़ाया।’
मौश्री ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से ऑनर्स की डिग्री हासिल की मगर यह तो बस एक शुरुआत थी। इसके बाद उन्होंने 2003 में वकालत और इसके बाद एम.ए, एलएलएम, मास्टर ऑफ सोशल वर्क और डॉक्टरेट की पढ़ाई राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों से की। फिलहाल वह वर्तमान में साउथ कोलकाता लॉ कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त हैं। मौश्री की नयी किताब शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है।
क्या है रेटिना पिगमेंटोसा रोग
रेटिना पिगमेंटोसा आँखों की सेहत को लगातार बिगाड़ने वाला एक गम्भीर रोग है। हालांकि यह एक विरल रोग है मगर आनुवांशिक है, मतलब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाता है। इसके लक्षण बचपन से ही दिखने लगते हैं। जिनको या कम रोशनी में दृष्टि में कमी या दूर दृष्टि दोष होता है, वह इसके मरीज हैं मगर इस रोग का कोई कारगर इलाज नहीं है।