वसुंधरा मिश्र की कहानियों का प्रथम संग्रह ‘टहनी पर चिड़िया’ स्त्री संवेदना की यथार्थ अनुभूतियों के शब्द चित्र हैं । इन कहानियों में स्त्री अपनी आजादी के लिए व्याकुल है।स्त्री पुरुष के संबंधों के लिए आवश्यक है उनका मानसिक तालमेल- स्त्री अपना मार्ग तलाश रही है। कथा की स्त्री पात्राएं अपनी मर्यादा का पूरा ध्यान रखती हैं। इन कहानियों को पढ़कर मुझे 70-75 वर्ष पूर्व प्रकाशित सुमित्रा कुमारी सिन्हा की कहानी ‘व्यक्तित्व की भूख’ का स्मरण हो आया जिसकी नायिका इला कहती है ‘प्रेम ही तो जीवन है, इसकी अवहेलना क्यों? इसके बिना जीवन निस्पंद, निर्जीव, निरानंद हो जाता है। मन में प्रश्नों के समूह उठते क्यों? एक ही रास्ते पर चलने को नारी प्रेरित क्यों? क्या एक ही चीज देखते-देखते मनुष्य का थका मन अटक जाना नहीं चाहता? तो इस मानव सुलभ स्वभाव की हत्या क्यों?’ वस्तुतः यह कहने का साहस आज भी भारतीय समाज की स्त्रियों को नहीं है जबकि स्त्री – विमर्श आज अपने कई चरण पूरे कर चुका है – 50-55 वर्ष की अवधि में समाज की कई वर्जनाएं टूटी भी हैं और सयास तोड़ी भी गई हैं। व्यक्तित्व की भूख व्यक्तित्व की तलाश है। वसुंधरा की नारी पात्राएं अपने व्यक्तित्व की तलाश करती हैं। कुछ लक्ष्य तक पहुंचती हैं, कुछ नहीं कथाएं यथार्थ का स्पर्श करते हुए कल्पना के आदर्श जगत में दीखती है।
‘टहनी पर चिड़िया’ कहानी जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कथा चिड़िया और चिड़ा के स्वच्छंद, स्वार्थ रहित जीवन को प्रतिबिंबित करते हुए शेष और श्रुति के समाज समर्पित जीवन को दर्शाती है। नायक शेष के हर दिन की शुरुआत चिड़ियों की चहचहाहट और उषा की लालिमा से होती है। चिड़ा और चिड़िया शेष और श्रुति के गहरे मानवीय संबंधों के प्रतीक बन कर आएं हैं। कहानी में समाज के संकीर्ण विचारों के कक्ष में एक खिड़की अवश्य खुलती है जब वे कहती है, ‘उनकी दुनिया पिंजरे में बंद चिड़ियों की तरह न थी, उन चिड़ियों की तरह थी जिनका आकाश से भी परे ब्रह्मांड के रहस्यों से ताल्लुक था।’ शेष और श्रुति ने रेत पर पैरों के निशान बनाने की ठान ली है और प्रगति की दिशा में ये कदम बढ़ते जाते हैं। यहां स्त्री की आजादी तो दिखाई पड़ती है पर एक प्रकार की छटपटाहट भी है जिसका विस्तार दूसरी कहानियों में हुआ है।
अट्ठारह कहानियों के इस संग्रह की अधिकतर कहानियों में स्त्री के भीतर उठने वाली विभिन्न संवेदना विभिन्न पक्षों के संदर्भ में उभर कर आती हैं। ‘आंखों के पीछे’ की नायिका मधु नायक समर से दैहिक प्रेम नहीं मन से जुड़ी है । ये पंक्ति, ‘प्रेम प्यास है और यहीं से जीवन दृष्टि की नई सोच पैदा होती है।’ दार्शनिक विचार, आध्यात्मिक प्रेम की चर्चा है पर निश्चित रूप से प्रेम आकर्षण की ही उपज है। इस प्रकार के संबंधों की स्वीकृति के लिए जद्दोजहद तो हो रही है लेकिन अभी भी समाज स्वीकृति पूरी तरह नहीं मिल पाई है। इसी लिए मधु और समर पलकें बंद कर कल्पना लोक में खो जाते हैं।
‘परछाई’ में तीन पात्रों द्वारा प्रेम का त्रिकोण, जैनेंद्र की कथा जाह्नवी की याद दिलाता है कथा स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति और साथी के चयन की स्वतंत्रता पर प्रकाश डालती है। ‘स्पंदन’ में पुरुष पात्र स्त्री संवेदनाओं को झंकृत कर दिशा भी देते हैं। लेखिका लिखती है,’ बेटी होने की हीनता और चुनौतियों से निकल कर आज रोहित के साथ खुली हवा में सांस ली थी।’ रोहित का भी कहना है कि,’ जहां बेटी का सम्मान न हो वहां प्रगति नहीं हो सकती। स्त्री को अंधे कुएं से निकालना होगा सिर्फ अपने लिए ही नहीं, समाज के उत्थान के लिए भी। जब रोहित की धड़कने बंद हो जाती हैं, वह संसार से विदा ले लेता है तब भी लेखिका की धड़कने उसके ही भावों से धड़कती है।’ यानी अज्ञान के अंधकार से और पराधीनता की बेड़ियों से स्त्री को मुक्त कराने का निरंतर प्रयास उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है।’ प्रेत ‘कहानी में स्त्री जीवन की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति बहुत ही सशक्त ढंग से हुई है। पुरुष जब स्त्री की शारीरिक और मानसिक दोंनो क्षुधाओं को पूरा करने में असमर्थ होता है और स्त्री घर, समाज व आर्थिक असुरक्षा के कारण स्वयं को लाचार और घुटन की स्थिति में पाती है, तब वह लाचारी और घुटन की स्थिति किस रूप में अभिव्यक्ति पाती है इसे लेखिका ने मर्यादित रूप में व्यक्त किया है। स्त्री आज भी चुप रहने वाली है यह उसके स्वभाव का हिस्सा बन चुका है–‘दुख सहकर भी मुस्काना’। ‘मां के शायद प्रेत आत्माएं दीखती हैं’ जैसी पंक्तियां स्पष्ट करती हैं कि वस्तुतः आज भी स्त्री के फ्रस्ट्रेशन को भूत – प्रेत का नाम दे कर किनारे कर दिया जाता है।’ संयुक्त परिवार की बहुत सी अनकही समस्याएं यूं ही बंद दरवाजों में छिद्र ढूंढ लिया करती हैं ‘कहानी की सशक्त पंक्ति है।
कहानी रफ्तार, विधि की विडंबना, तू क्यों रूंधे मोहे आदि कहानियों में स्त्री से संबंधित कई संवेदनात्मक विषयों को उठाया गया है। कहानी स्त्री पुरुष में संवाद शैली में भ्रूण हत्या की समस्या को उठाया गया है जिसमें पढ़े लिखे लोग भ्रूण हत्या में अधिक लिप्त हैं।टहनी पर चिड़िया कहानी संग्रह में स्त्री पुरुष की अनुभूतियों और अहसास की कहानियां है।
यज्ञ, स्मृति वन, वह शाम, गवाक्ष, कहाँ है दर्द, कौन सा समय?, पतझड़ आदि कहानियों में लेखिका ने मन के ऊहापोह और जटिल अनुभूतियों को सुंदर बिंबो द्वारा साकार किया है जैसे गवाक्ष कहानी की ये पंक्तियाँ, ‘वहां कोई स्त्री नहीं थी, पुरूष भी नहीं था, बच्चों की किलकारियाँ नहीं थीं, थीं तो एक मकान की दो आंखें जो बाहर से चमचमा रही थीं और अंदर से आंसुओं में डूबी थीं।’ प्रौढ़ और सूक्ष्म वर्णन कहानियों के मर्म को छू लेते हैं।
पति – पत्नी- बच्चे, आजीविका, कैरियर, परिवार, रिश्तों के बीच संतुलन कैसे बनाएं यह आज की सोच है। कहानी कौन सा समय बहुत सुंदर बन पड़ी है।पतझड़ कहानी में लेक्चरर अमर और छात्रा कावेरी की मित्रता का वर्णन है।
जहां ‘अनजाने सावन की तलाश में वह अपने पतझड़ के सूखे पत्तों से भरे सूने आंगन को बुहारना ही भूल गया, जहां उसने जीवन को खिलते देखा था।’ जैसी पंक्तियां परिवार, सामाजिक मान मर्यादा को महत्व दिया गया है।
संग्रह की अंतिम कहानी एक नया कदम में समाज में प्रचलित स्त्री – पुरुष के संबंधों को दैहिक काम वासना से ऊपर मानते हुए हृदय की संवेदना को विशेष महत्व दिया है।
पाठक के लिए कहानी संग्रह का नाम’ टहनी पर चिड़िया’ विशेष रूप से आकर्षित करता है। मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को संग्रह की अट्ठारह कहानियों में विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रमुखता दी गई है। कहानियां पठनीय हैं, हृदय को छूती हैं यही कारण है कि टहनी पर चिड़िया ऊर्जा से भरपूर है।
टहनी पर चिड़िया (कहानी संग्रह) –
डॉ वसुंधरा मिश्र
महाबोधि बुक एजेन्सी
समीक्षक – – – डॉ. मंजू रानी गुप्ता एवं डॉ. सुषमा हंस