साहित्य और अकादमिक क्षेत्र में विमर्श का नया क्षेत्र है सबाल्टर्न 

 डॉ. राजश्री शुक्ला

सर्बाल्टन साहित्य आज साहित्य का ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के अकादमिक विमर्शों का एक प्रासंगिक विषय है। सबाल्टर्न का प्रारम्भ जब हुआ था तो यह फौज के निचले तबके के लोगों के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द था, आज साहित्यिक विमर्श में इसका उपयोग होता है। सबाल्टर्न का अर्थ होता है – निम्नवर्गीय लेकिन सिर्फ निम्नवर्गीय ही नहीं बल्कि हाशिये की आवाजें, वो जिनको कभी आवाज मिली नहीं, जैसे कि सबाल्टर्न में एक प्रचलित विमर्श है कि सबाल्टर्न बोलते हैं।

एक और प्रश्‍न है कि क्या सबाल्टर्न बोल सकते हैं, तो ये उनकी आवाज है जिन्होंने कभी बोला नहीं है। बोलना चाहते थे मगर तब उनको आवाज मिली नहीं। भारतीय भाषाओं में, खासकर बांग्ला में, सबाल्टर्न का अर्थ होता है निम्नवर्गीय चेतना। हिन्दी में हम सबाल्टर्न को लेते हैं हाशिए के साथ में।

साहित्य में ही नहीं बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में सबाल्टर्न है। अब इस पद की अर्थ व्याप्ति हो गयी है – भौगोलिक सबाल्टर्न है जैसे विश्‍व के सन्दर्भ में दक्षिण एशिया का जो पूरा प्रांत है और इन देशों और यहांँ के निवासी, चिंतन और संस्कृति हैं, ये सब सबाल्टर्न के अंतर्गत हैं। अगर इसे भारत के सन्दर्भ में देखते हैं तो केन्द्रीय जनता और समाज को छोड़कर जिनको मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, असम, नगालेैंड, अरुणाचल प्रदेश, जिनको हम पूर्वोत्तर कहते हैं, लेकिन पूर्वोत्तर शब्द ही हमारे भीतर बैठे सबाल्टर्न को दिखाता है।

पूर्वोत्तर के लोग कहते हैं कि हमें पूर्वोत्तर क्यों कहा जाता है जबकि इनमें से हर राज्य की अपनी अस्मिता है, अपनी अलग – अलग विशेष संस्कृति हैं। भारत चूँकि केन्द्र में है इसलिए हाशिए के क्षेत्र को पूर्वोत्तर कह दिया मगर मणिपुरी संस्कृति अरुणाचल से अलग है, नगालैंड बिलकुल अलग है। जैसे हम कहते हैं – बंगाली मानसिकता, मराठी मानसिकता, उसी तरह हम कहें मेघालयी संस्कृति या मणिपुरी चिंतन, तो हम मान सकते हैं कि हमारे दिमाग से सबाल्टर्न प्रभाव हट रहा है।

मूलतः सबाल्टर्न का अर्थ है, वह सारा समुदाय जो अभिजात परम्परा के विरोेध में खड़ा होता है। अभिजात का विलोम है सबाल्टर्न यानी दमित, शोषित और हाशिए पर, मूक जिनको बोलने नहीं दिया गया और यह मान लिया गया कि वे बोलना नहीं जानते।

सबाल्टर्न का बड़ा हिस्सा है आदिवासी समुदाय। हम जानते है कि हिन्दी आलोचना आज आदिवासी विमर्श को लेकर भी चल रही है। आदिवासी शब्द से प्रतीत होता है कि ये पहले से आए हैं यानी प्रकृति के अधिक नजदीक हैं लेकिन आर्थिक विकास और बाजारवाद, पूँजीवाद ने खास तरीके से जो प्रकृति के नजदीक थे, उनको धकेल दिया। जो शिक्षा के केन्द्र में थे, उन्होंने एक वर्चस्ववादी समूह बना लिया और जो उनके बीच नहीं थे उनको सबाल्टर्न बनाकर छोड़ दिया। आज का समय हाशिए के लोगों को सुनने का समय है।

हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता के काल से यह दौर आरम्भ हुआ है, तब से दलित साहित्य प्रमुख हो गया। आज दलित और स्त्री के साथ आदिवासी विमर्श पर विद्यार्थी बड़ी तादाद में शोध कर रहे हैं। संजीव के उपन्यास उस वर्ग के बारे में हैं जो अपनी आवाज नहीं उठा सकता। पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए पाठ्यक्रम को बदलने की जरूरत है। अभी यह चर्चा और विमर्श तक है, इस पर जो लिखा जा रहा है, उस पर बात कर रहा है। एम. ए. में दलित और स्त्री विमर्श पाठ्यक्रम में हैं।

सभी भारतीय भाषाओं को विश्‍व के परिदृश्य में सबाल्टर्न के रूप में देख सकते हैं, अँग्रेजी इसके विरोध में खड़ी हुई है। मूल रूप से ही इनको बोलते समय अगर नीचे धरातल पर खड़े होते हैं तो यह भाषा भी सबाल्टर्न है। अँग्रेजी जब कोई बोलता है तो कोई उसके ज्ञान का स्तर नहीं देखा जाता है। भाषा जिस जगह सामाजिक स्तर बताने लगती है, अपने साथ दूसरा कुछ व्यक्त करने लगती है तो वहाँ तुरन्त यह जुड़ जाता है।

युवाओं को जब जोड़ना है तो जरूरी है कि इस पर कुछ लिखा जाए लेकिन यह प्रश्‍न है कि भारतीय युवाओं में कितने प्रतिशत युवा पढ़ना चाहते हैं या पढ़ते हैं। सिर्फ पाठ्यक्रम से जोड़ने पर ही वे क्यों पढ़ेंगे? केन्द्र में लाने से ज्यादा जरूरी है कि सबाल्टर्न – जो कहना चाहते हैं उनको संवेदना के साथ सुना और समझा जाए। चेतना की दृष्टि से मुक्त होना पहला कदम है। चेतना की दृष्टि से सशक्त स्त्री सबाल्टर्न विमर्श में हस्तक्षेप कर सकती है।

(लेखिका कलकत्ता विश्वविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा प्रखर वक्ता हैं)

 

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