लहसुन, स्ट्रॉबेरी और फूल भी लगाए
इंदिरा गाँधी कृषि विश्विद्यालय में हवा में खेती का प्रयोग भी सफल रहा
धान के भूसे पर लगा टमाटर का पौधा 15 फीट तक ऊंचा हो गया और साल में 10 महीने तक फल दे रहा है
रायपुर : तेज शहरीकरण और बढ़ती आबादी की वजह से जमीन सिकुड़ रही है, इसलिए प्रदेश के कृषि वैज्ञानिकों ने अब जमीन यानी मिट्टी के विकल्प पर काम तेज कर दिया है। इस साल यहाँ के वैज्ञानिक रेत, लकड़ी के बुरादे और धान के भूसे की परत बिछाकर टमाटर और खीरे की बंपर फसल लेने में कामयाब हो गए हैं। यही नहीं, हाइड्रोपोनिक्स सिस्टम से सलाद, पत्ती वाली लहसुन, स्ट्रॉबेरी और फूलों में पितूनिया और सेवंती भी उगा लिए हैं। हवा में खेती यानी एयरोपोनिक्स सिस्टम पर भी इस साल सफलता की उम्मीद है।
वैज्ञानिकों की मानें तो ऐसे तरीकों से खराब और बंजर पड़ी जमीन का भी उपयोग हो सकेगा। फूल-फल और सब्जियां आदि लगाने में जमीन की जरूरत अब बहुत कम पड़ेगी। इन्हें रेत, भूसे, बुरादे में उपजाया जा सकेगा। यहाँ तक कि इन्हें हवा में लटकाकर भी पैदावार किया जा सकेगा। प्रदेश में इंदिरा गांधी कृषि विवि में हाइड्रोपोनिक्स सिस्टम से रेत और बुरादों पर उत्पाद लेने का सफल प्रयोग रहा है। यहां फूल, फूलगोभी, धनिया पालक पर इसका प्रयोग किया गया है। पहले इसके लिए लकड़ी के बुरादे का उपयोग किया गया। यह महंगा पड़ने लगा तो नारियल के बुरादे को लाया गया। फिर आसानी से उपलब्ध धान के भूसे को चुना गया। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस पर लगा टमाटर का पौधा 15 फीट तक ऊंचा हो गया है और साल में 10 महीने तक फल दे रहा है।
मिट्टी के विशेषज्ञ और कृषिविवि के कुलपति डॉ. एसके पाटिल ने कहा कि हाइड्रोपोनिक और एयरोपोनिक्स भविष्य के लिए फायदेमंद हैं। जमीन सिकुड़ रही है, इसलिए यह बेहतर विकल्प तो है ही, इससे फसलों की क्वालिटी भी सुधरेगी। इजराइल में यह प्रयोग सफल है, यहां के किसानों को दक्ष करने में समय लग सकता है। भूमि रहित खेती पर छत्तीसगढ़ ही नहीं, शिमला व दिल्ली में भी काम चल रहा है। एयरोपोनिक्स पर शिमला के सेंट्रल पटैटो इंस्टीट्यूट में आलू उगाए गए हैं। वहां आलू हवा में लटके हुए ही बड़ा हो रहा है। अभी इन्हें बीज के लिए उगाया जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि घरों के लिए ये मॉडल लोकप्रिय हो सकते हैं। इसमें पानी की टंकी बनाकर जो भी उत्पाद लिया जाना है उससे संबंधित न्यूट्रीशियन (खाद-दवा आदि) पानी में घोल दिया जाता है। फिर इसे प्लास्टिक के पाइप के जरिए फसल पर स्प्रे (छिड़क) कर दिया जाता है।
आखिर मिट्टी है क्या?
चट्टानों के टूटने-फूटने तथा उनमें भौतिक और रासायनिक परिवर्तन के फलस्वरूप जो तत्व एक अलग रूप ले लेते हैं, उसे ही मिट्टी कहा जाता है। बताते हैं कि 1979 में डोक शैव ने मिट्टी का वर्गीकरण किया। उन्होंने मिट्टी को सामान्य व असामान्य में बांटा। देश की मिट्टी को पांच भागों में बांटा गया। 1. जलोढ़ मिट्टी 2. काली मिट्टी. 3. लाल मिट्टी, 4. लैटराइट 5. मरू मिट्टी। छत्तीसगढ़ की मिट्टियों में विविधता पाई गई है। इसमें लाल और पीली मिट्टी, लैटेराइट मिट्टी यानी भाठा, काली मिट्टी, लाल-बलुई मिट्टी व लाल दोमट मिट्टी शामिल हैं। देश में करीब 12 प्रकार की मिट्टी पाई जाती है।
सॉयल हेल्थ कार्ड
राज्य में 2015 से स्वायल हेल्थ कार्ड बांटे जा रहे हैं। 2015 से 17 तक पहले चरण में सात लाख 90 हजार मिट्टी के नमूनों की जांच करके 43 लाख 37 हजार 595 किसानों को स्वायल हेल्थ कार्ड बांटे गए। दूसरे चरण में 2017 से 19 तक 9 लाख 63 हजार 421 मिट्टी के नमूने जमा किए गए। इनमें से 9 लाख 57 हजार 60 नमूनों की जांच की गई। करीब 55 लाख 14 हजार 508 किसानों को कार्ड प्रदान किए गए। 2019 – 20 में 61 हजार 167 पायलट ग्रामों का चयन किया गया। यहां से 55 हजार 173 मिट्टी के नमूने जमा किए गए।
प्रदेश में पाँच प्रकार की मिट्टी
नाम हेक्टेयर प्रतिशत
कछार 1.38 लाख 2.7
भाटा 10.02 लाख 20
मटासी 13.54 लाख 26.9
डोरसा 13.82 लाख 27
कन्हार 11.43 लाख 22.8
इसलिए ज्यादा उत्पादन
वैज्ञानिकों का दावा है कि रेतीली जमीन या रेत पर में भरपूर न्यूट्रीशियन दिए जाएं तो हाई प्रोडक्शन लिया जा सकता है। इसकी वजह यह कि न्यूट्रीशियन जो खाद, दवा समेत करीब 18 प्रकार के होते हैं। रेत या बुरादे में चिपकते नहीं हैं। उन्हें पौधे सीधे आब्जर्व कर लेते हैं। इसके साथ ही पौधों की जड़ों को बढ़ने आसानी होती है, क्योंकि उन्हें बढ़ने या फैलने रास्ते आसानी से मिलते हैं। इसके लिए उन्हें एनर्जी भी खर्च नहीं करनी पड़ती। ये एनर्जी पौधे अपने फल को बढ़ाने लगाते हैं। इस वजह से उत्पादन भरपूर मिलता है।