लोकगीत को मुख्यधारा में लाना बहुत जरूरी है

संगीत और अभिनय अगर एक साथ हो तो आपको पुरानी फिल्में याद आ जाती हैं और आज की फिल्मों में ऐसा होता है तो कलाकार को सुरीला बनाने में उसके गले से ज्यादा संगीतकार का योगदान होता है। बहरहाल हम सिनेमा की बात नहीं कर रहे हैं और न ही उन कलाकारों की जिनके लिए अभिनय का अर्थ हिन्दी फिल्में हैं। रंगकर्म को पूरी शिद्दत से अपनाने वाले और इस रंगकर्म के साथ अपनी गायकी को साथ रखने वाले बहुत कम हैं मगर एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा की धनी अभिनेत्री, गायिका और कवियत्री भी है जो इन तीनों मुश्किल विधाओं को एक साथ साधती है। हम बात कर रहे हैं कल्पना ठाकुर की जो एक प्रखर कवियत्री, भावप्रवण अभिनेत्री और सुर की धनी गायिका हैं। इसके साथ ही वे एक केन्द्रीय संस्थान में अनुवादक भी हैं। अपराजिता में इस बार पेश है कल्पना ठाकुर से बातचीत के प्रमुख अंश –

घर से ही मिला संगीत का परिवेश

संगीत का परिवेश घर की ही देन है। पिता बहुत अच्छा गाते थे और माँ लोकगीत बढ़िया गाती थीं। माँ को मैंने घर के पारिवारिक अनुष्ठानों, जैसे शादी – ब्याह, मुंडन, मधुश्रावणी, जनेऊ जैसे अवसरों पर बचपन से ही ढ़ेर सारे लोकगीत गाते हुए सुना। पिता जी भी कभी दोस्तों के साथ तो कभी हम भाई – बहनों को लेकर संगीत की मंडली सजा लिया करते थे। इसी परिवेश में बड़ी हुई और अनजाने में ही संगीत की ओर झुकाव होता गया। माता– पिता को गाते देख मैं भी भजन की किताब लेकर पूरी किताब के भजन गा लेती थी, तब आसन से उठती थी।

लोकगीतों की समुचित मार्केटिंग समय की माँग है

लोकगीत के सीधे सरल बोल हों, या सहज जीवन की स्वाभाविकता लिए उनकी धुनें हों, वे सीधे दिल में उतरते हैं और जीवन से जोड़ लेते हैं । हर मौके और हर मनोभाव के लिए आपको लोकगीत मिलेंगे। फिर चाहे वह फूल तोड़ते हुए हो या राह चलते हुए, ये गीत हमारे साथी होते हैं। पर अफसोस की बात है कि हमारी भावी पीढ़ी इस समृद्ध परम्परा से अनजान है। लोकगीत साधारण बानगी में असाधारण प्रभाव की क्षमता रखते हैं। इन्हें बचाये रखना और इसका विस्तार पीढी दर पीढ़ी करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।

आज तो तकनीक और संचार का युग है… तमाम माध्यम अपनाये जा सकते हैं। सरकार तो करेगी ही… कुछ कारपोरेट घराने इसे प्रायोजित करें। लोक कला मंचों को आर्थिक मदद देकर बढ़ाया जाए। कलाकारों का बीमा… वेतन जैसी कुछ नीतियां हों।अकादमियों में अनिवार्य रूप से क्षेत्रीय लोकगीत संगीत आदि के कार्यक्रम हों जिनमे प्रवेश निःशुल्क हो।

कक्षाओं में कोर्स में अनिवार्य रूप से पाठ हों। सभी पाठ्यक्रमों में विकल्प के विषय में इसे शामिल किया जाए। और सबसे ज़रूरी कि हम गाँव से जुड़े रहें। बच्चों को उस मिटटी पर लोटने दें, जहाँ के कण कण में  संगीत समाया हुआ है।

आधुनिक तकनीक पर जोर देना जरूरी है

फिल्मों की पहुँच सर्वव्यापी है। युवाओं को फिल्में सबसे अधिक प्रभावित करती हैं और फिल्मों में परोसी जाने वाली चकाचौंध के मुकाबले लोकगीत काफी देसी और सीधी – सादी विधा है। आधुनिकता और तकनीक से लैस फिल्म जगत से जुड़े लोग इस पर ध्यान दें तो शायद यह और अधिक प्रभावी तरीके से ज्यादा लोगों तक पहुँच सकेगा।

लोकगीत को मुख्यधारा में लाना बहुत जरूरी है

शुरूआत घर से होती है। माता –पिता लोकगीतों से बच्चों को परिचित करवाएं तो बुनियाद तैयार होगी। स्कूलों में लोकगीत को समुचित स्थान मिले तो शायद एक मानसिकता तैयार होगी। लोकगीत को मुख्यधारा में लाना बहुत जरूरी है।

 लोकगीत के साथ थियेटर भी भाता है

लोकगीत से अधिक मैं थियेटर से जुड़ी रही हूँ। पिछले लगभग 20 वर्षों से रंगकर्मी के साथ काम किया। नाटकों में लोकगीतों का खूब उपयोग होता है। हाल ही में रंगप्रवाह के साथ अंगीरा किया और उसे काफी सफलता मिली। आगे भी इसी विधा से जुड़े रहना पसंद करूँगी।

 साहित्यिक गीतों को सरल भाषा चाहिए

साहित्य को अगर संगीत से जोड़ना है तो भाषा को सहज –सरल बनाना होगा और सरल भाषा में गीत लिखे जाने चाहिए जिसकी धुन आकर्षक हो।

 हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना होगा

हमें अपनी जड़ों  से जुड़े रहने की जरूरत है। बच्चे हमेशा से अच्छे गीत और अच्छे बोल वाले गीत सुनें, यह हमें सुनिश्चित करना होगा। रूचि विकसित होती जाएगी। वैसे भी लोकधुनों में जो बात है, वो और किसी में नहीं है।

 

 

 

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