रवीन्द्र के गीत – संगीत और उनका पुष्प प्रेम 

वसुन्धरा मिश्र

कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीतों में मनुष्य के सुख- दुख, व्यथा – वेदना, आशा – आकांक्षा, आनंद – विषाद, अनुभूति – उपलब्धि आदि विभिन्न प्रकार के भाव मिलते हैं। उनके गीतों में भाषा, भाव, स्वर और छंद का मनोरम सम्मिलन और कला, रूप और रस की आनंद धारा है। प्रेम रस से सिंचित, विरह के स्वर में डूबा, आनंद का प्रकाश उड़ेलती, पूजा का नैवेद्य रूप और प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उनके काव्य में मूर्त रूप ले लेता है। इसके अतिरिक्त दमन करने वाले को सावधान कर दुर्बल और शोषित वर्ग को उससे लड़ने का साहस प्रदान करने का आह्वान किया है। कविगुरू के गीत मनुष्य को एक अतीन्द्रिय उपलब्धि की ओर ले जाते हैं। उनकी यह असाधारण प्रतिभा केवल बंगाल के संगीत को ही एक नया युग प्रदान नहीं करते अपितु इन गीतों के शब्द, स्वर – माधुर्य, भाव-गांभीर्य और भाषा का प्रयोग समग्र भारतीय भाषा भाषी लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
कविगुरू की संगीत संपदा सभी वर्गों के लिए है। यह यौवन का भोज्य और बुढ़ापे का साथी है। उनके गीतों में प्रायः अढा़ई हजार गीतों में 67 प्रकार के उद्भिदों और फूलों का उल्लेख 687बार हुआ। उनके काव्य में 108 प्रकार के पेड़ पौधों के विषय में वर्णन आया है। सभी प्रकार के सुंदर, सुगंधित, बहारी फूलों का तो प्रयोग किया ही गया है साथ ही अवहेलित और ग्राम्य फूलों जैसे कचालू सहजन, वन मल्लिका, सरसों, ताड़, दूब आदि को भी नहीं छोड़ा है। मधुमंजरी, नीलमणि, हिमझूरी, ताराभरा, हर सिंगार आदि के नामकरण कविगुरू ने किए हैं।
“तुमि आमाय डेकेछिले छूटिर निमंत्रणे” (प्रेम – 288)
ये बहुत ही परिचित गीत है जिसके साथ मनुष्य का आत्मिक संबंध मिलता है। इसी गीत के अंतरे में है – – –
“चाइलो रवि शेष चाओवा तार कनकचांपार वने” कवि कनकचांपा से बहुत परिचित हैं कि दिन के अवसान की व्याख्या के समय उनकी लेखनी से इस तरह की पंक्तियों निकली। पेड़ – पौधों को रवींद्र नाथ ने आत्मा और हृदय से जोड़ा। कनकचांपा का पेड़ ऊंचे कद और प्रशस्त पत्तों से युक्त है जिनमें सूर्य किरणों की रश्मियां बहुत देर तक रह जाती है जो इसी पेड़ विशेष पेड़ के लिए ही संभव है। वि
जीवंत और मानवीय गुणों से सम्पन्न उद्भिद और वनस्पतियों पर कवि ने अपनी लेखनी खूब चलाई है।
कवि का पुष्प प्रेम का जन्म निश्चित ही उनका बाल्यकाल ही रहा है किंतु जब उन्होंने शिक्षायतन शांतिनिकेतन का निर्माण किया तो फूलों के प्रति उनके अगाध प्रेम का पता चलता है।
रवींद्र नाथ की पुत्रवधु प्रतिमा देवी ने कवि के पुष्प प्रेम की आंतरिक झलक को उजागर किया है। उन्होंने लिखा है, “उत्तरायण के पेड़ – पौधे उन्हें अत्यंत प्रिय थे। सेमल का पेड़ (कोणार्क के सामने) किस तरह बढेगा, कौन सी खाद देनी होगी, उसमें कौनसी लता लगाने से उसका सौंदर्य बढेगा, इन विषयों पर उनकी सतर्क दृष्टि सदैव परिलक्षित होती थी। कोणार्क के पीछे की जमीन में कंटिकारी एवं विविध प्रकार के कांटों के पौधों को लगाया गया। – – – – फूलों के नये नये नामकरण किए गए। कुछ तो कोपाई नदी के किनारे लगे हैं, कई फूलों की उनकी अच्छी सुगंध, अच्छे वर्ण के कारण लगवाते, कहते – – ये ये फूल ले आओ। शांतिनिकेतन में लगाए गए। एक जंगली फूल शायद कोपाई से लाया गया था उसका नाम दिया “वन पुलक”। उसे “उदीचि” गृह के पास लगाया गया – अभी भी वह वहाँ है। (रवीन्द्र नाथेर पुष्प प्रीति, प्रवासी, माघ 1363)
श्री देवी प्रसन्न चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि सन् 1901 में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ अपनी पत्नी और पुत्र के साथ शांतिनिकेतन चले गए। शालविथि, माधवी कुंज आदि का निर्माण किया। (शांतिनिकेतन, उत्तरायण, माघ 1395)


प्रसिद्ध पुष्प वैज्ञानिक डॉ देवी प्रसाद मुखोपाध्याय ने बांग्ला भाषा में” रवींद्र संगीते प्रयुक्त उद्भिद औ फूल” में रवीन्द्र नाथ के गीतों में प्रयुक्त फूलों और पेड़ – पौधों पर साहित्यिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चर्चा की है।प्रस्तुत पुस्तक का हिंदी अनुवाद मैंने डॉ देवी प्रसाद मुखोपाध्याय के निर्देशन में किया जिसे बाउलमन कोलकाता प्रकाशन ने ” रवींद्र संगीत में प्रयुक्त उद्भिद और फूल” शीर्षक से प्रकाशित किया।इस पुस्तक में रवीन्द्र नाथ द्वारा प्रयुक्त लगभग 120 फूलों और पेड़ – पौधों के रंगीन चित्र भी दिए गए हैं।
रवीन्द्र नाथ का पुष्प प्रेम वास्तव में उनकी सचेतनता का प्रकृष्ट प्रमाण है। वे बहुत ही सहज होकर लिखते हैं – – ऐ मालती लता दोले पियाल तरूर कोले पूब हावाते अर्थात पूर्वी हवा से पियाशाल पेड़ की गोद में मालती की लता हिलडुल रही है। फूलों के साथ उनकी घनिष्ठता, उनकी उपमाएं, चित्र आदि जिस तरह से मिलते हैं वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। कदंब उनके लिए वर्षा कालीन अंधकार में रौद्र दिनों की स्मृति, केवड़ा निषेध के बेड़े में घिरा अमृत स्पर्श, कामना की प्रतिरूप अशोक मंजरी, जूही फूल के हृदय में युगों युगों की वेदना का भार बनकर ही चित्रित हुआ है।
हम साधारण मनुष्य हैं – – हमें तो स्वयं से भी प्रेम करना नहीं आता – – – विश्व प्रकृति से प्रेम करना तो बहुत दूर की बात है। फिर भी प्रकृति जिसके पास इस रूप में निकट आ गयी हो उसके लिए जीवन में प्राप्ति और अप्राप्ति का विषय बहुत ही तुच्छ हो जाता है। बड़े होने के साथ साथ कई संघर्षों से पाला पड़ता है परंतु इस प्रकार का अपरिमेय और निश्छल प्रेम हम कहां प्राप्त कर सकते हैं। रवींद्र नाथ के गीत संगीत की दुनिया वास्तव में सोने की छड़ी छू जाने जैसी ही हैं। रवीन्द्र जयंती पर कविवर को प्रेम अभिव्यक्ति के कुछ शब्दार्पण अर्पित करती हूँ।रवीन्द्र नाथ को उनकी समग्रता में जानने और समझने के लिए दूसरा जन्म भी कम है , बहुत ही कठिन साध्य है।

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।