महिलाओं और बच्चों को सशक्त बनाने से बनेगा स्वस्थ समाज

गुलाबी सर्दियों की आहट सुनायी देने लगी है और त्योहार में डूबे हम धीरे – धीरे अपनी दुनिया में वापस लौट रहे हैं मगर इस बार के लौटने में थोड़ी सी तसल्ली है। दिवाली पर इस बार दीए खूब जले, अच्छा लगा, कारीगरों के चेहरे की हँसी लौटते देख, अब छठ की बारी है। थोड़े दिन में बाल दिवस भी आने वाला है, कारीगरी की बात करें तो बच्चे याद आ ही जाते हैं क्योंकि हस्तशिल्प की दुनिया में कालीन से लेकर पटाखों तक और चाय की दुकान से लेकर सब्जी की दुकान तक, हमने इनका होना तय कर रखा है। जिस उम्र में किताबें और और खिलौने बच्चों की दुनिया होनी चाहिए, वे कड़कड़ाती सर्दी में रात को खुले आसमान के नीचे बरतन धोते दिखते हैं। बाल श्रम पर रोक है मगर संशोधन के बाद कहा जा रहा है कि पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बँटाने पर रोक नहीं है।

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अगर ऐसा हुआ तो फिर इस बात की गारंटी कौन देगा कि बच्चे से काम करवाने के लिए जबरदस्ती नहीं की गयी है। ऐसे बच्चे दूसरे राज्यों से आते देखे हैं जिनको 5 या 6 साल की उम्र में ही कमाने के लिए घर से दूर भेज दिया गया है।

कई बार बच्चे स्कूल के बाद काम में हाथ बँटाते हैं और वे खुशी से करते हैं मगर हमें ध्यान रखना होगा कि उनकी पढ़ाई खतरे में न पड़े।

एक ऐसा संशोधन जो, हमारी समझ से किया जा सकता है कि नियोक्ता अगर बच्चे को काम पर रखता है तो उसकी शिक्षा का दायित्व भी उसे दिया जाए और उसकी पड़ताल हो।

इससे एक तो बच्चे स्कूल जा सकेंगे और बड़े घराने या बड़ी कम्पनियाँ ऐसा कर सकती हैं कि वे जिन कारीगरों के बच्चों से काम लेती हैं, उनके लिए स्कूल खोलें, भले ही वह सांध्य स्कूल हो, यह उनकी सीएसआर योजना का हिस्सा बन सकता है।

इसके साथ ही बच्चों के साथ उनकी माँओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत है। घरेलू हिंसा निरोधी दिवस भी इसी महीने में पड़ता है और यह भी हमारी मानसिकता से जुड़ा है। तकलीफदेह बात यह है कि बहुत सी महिलाएं ऐसी हैं जिनको पतियों द्वारा की जाने वाली मारपीट में कोई बुराई नजर नहीं आती तो अधिकतर पुरुष ऐसे हैं जिनको यह अपना अधिकार लगता है।

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दरअसल, बच्चों और स्त्रियों का मामला अलग नहीं है।

अगर हम दोनों का सम्मान करते हैं तो निश्चित रूप से एक स्वस्थ समाज बनाया जा सकता है। अपराजिता की ओर से आप सभी को भैया दूज, छठ पूजा और बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

 

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