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सुषमा त्रिपाठी
सेक्टर फाइव से हावड़ा जाने वाली बस में चढ़ी थी। एक मित्र से मुलाकात हो गयी और मजाक ही मजाक में महिलाओं की सीट पर बैठे उस मित्र को हटाकर मैं बैठ गयी। महिलाओं की सीट को लेकर अधिकार जताने का काम हममें से अधिकतर महिलाएं करती हैं, मैंने भी किया मगर इसी सोच के साथ एक और ख्याल जुड़ा कि अक्सर 2 – 3 घंटे का सफर पुरुष भी ऐसे ही तय करते हैं। कोलकाता के सॉल्टलेक सेक्टर फाइव जाने वाली बसें भले ही सियालदह से गुजरें या साइंस सिटी से, उनमें भीड़ बहुत होती है। इन बसों में चढ़ने वाले विद्यार्थी और प्रोफेशनल्स को देखकर आपको स्कूल जाते बच्चे याद आ सकते हैं क्योंकि दोनों के बैग लगभग बैगपैक ही लगते हैं और उम्र इसमें बाधा नहीं बनती। खचाखच भरी बस में कुछ मनचले भी चढ़ते हैं जो लड़कियों को छूने का एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देते और कुछ ऐसे भी हैं जो किसी भी तरह सीट से हिलते भी नहीं हैं मगर इसके अलावा भी पुरुषों का एक बड़ा वर्ग है जो बसों के तमाम धक्कों के बावजूद किसी सिपाही की तरह भारी बैग लेकर तनकर खड़ा रहता है क्योंकि जरा सा स्पर्श उनको मनचलों की श्रेणी में ही ला देगा जो वे नहीं चाहते। आखिर इज्जत का मामला है तो जनाब लड़कियों को ही नहीं बल्कि लड़कों को भी अपने सम्मान का उतना ही ख्याल है। आज हम ऐसे ही संवेदनशील पुरुषों को लेकर इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि महिला सशक्तीकरण के दौर में उनकी बात पीछे छूटती चली जा रही है और अधिकतर पुरुष इसलिए अपनी बात नहीं रखेंगे क्योंकि उनकी नजर में यह उनको कमजोर बनाता है। मैं महिला हूँ और महिला सशक्तीकरण में पुख्ता यकीन भी रखती हूँ मगर मेरा यह भी मानना है कि महिला सशक्तीकरण का अर्थ पक्षपात नहीं है और न ही यह लैंगिक समानता को सही तरीके से परिभाषित करता है। संवेदनशीलता लड़कियों के लिए ही नहीं लड़कों के लिए भी जरूरी है और जो भी घटनाएं पुरुषों की संवेदनहीनता के कारण हो रही हैं, वह इसलिए क्योंकि आपने उनको मजबूत बनने का ऐसा आवरण पहनाया है कि वे इंसान होना ही भूल गए हैं और मर्द होने का मतलब हिंसक होना समझ बैठे हैं। आपने उनको तकलीफ सहना सिखाया मगर खुलकर अपनी अभिव्यक्ति जाहिर करना भूल गए और नतीजा यह है कि जब वे तकलीफ जाहिर नहीं कर पाते तो या तो प्रतिशोध लेते हैं या फिर पत्थर बन जाते हैं। एक इंसान के तौर पर रोना मेरी नजर में कमजोरी नहीं है क्योंकि यह आपको कहीं न कहीं हल्का कर देता है और पुरुषों को यह छूट कभी नहीं दी गयी तो क्या यह असमानता नहीं है? बहन भले ही कॉलेज में पढ़ रही हो मगर उसको छोड़ने और लेने उसका भाई ही जाएगा, फिर भले ही उसका ट्यूशन छूटे या क्लास छूटे और भले ही उसका इम्तहान हो और वह खुद बच्चा हो क्योंकि वह एक मर्द है। क्या यह असमानता नहीं है? आप लड़कियों पर इतना विश्वास रखकर उसे इतना सक्षम क्यों नहीं बनाते कि वह अपनी जिम्मेदारी खुद उठाए? मर्द होना तमाम इच्छाओं का मर जाना भी होता है क्योंकि बीबी भले ही शिक्षित हो, गुणी हो मगर जोरू का गुलाम कहे जाने के भय से वह उसे बाहर जाकर काम नहीं करने देगा, फिर भले ही ओवरटाइम करके बीमारियों का बोझ क्यों ही न बढ़ा ले। अगर रसोई में जाकर मदद करता है तो लोग कहेंगे कि बीबी ने उस पर जादू कर दिया है और नतीजा यह है कि बच्चों की परवरिश में हाथ बँटाकर उनके साथ वक्त बिताने की खुशी उसके हाथ से चली जाती है। आप थोड़ी देर के लिए क्यों नहीं मान सकते कि पुरुषों को भी महिलाओं की तरह घर की जरूरत है और घर की जिम्मेदारी उसकी भी है। वह अपनी बहन और माँ से लेकर पत्नी तक के ताने भी सुनता है क्योंकि वह उनकी बात कम सुनता है। अक्सर वह परिवार के लिए पैसे कमाने की मशीन से अधिक महत्व नहीं रखता औऱ ऐसे लोग ही अपराध के रास्ते पर बढ़ते हैं क्योंकि किसी भी तरह कमाने के चक्कर में वे भ्रष्टाचार और व्याभिचार, दोनों ही रास्तों पर चल पड़ते हैं। आप जरूरत नहीं समझते है कि लड़के कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, किससे दोस्ती कर रहे हैं और होता यह है कि आवेश जैसे बच्चे गलत रास्ते पर चलकर जान गँवा बैठते हैं। लड़के किसी लड़की को छेड़कर आए या मारपीट कर के आएं तो भी परिवारों में उनके रुतबे पर खास असर नहीं पड़ता और नतीजा पार्क स्ट्रीट और निर्भया कांड में दिखता है। लड़कों को लड़का होने के कारण कुछ भी करने की छूट देना खुद लड़कों के साथ भी तो अन्याय ही है क्योंकि आपने उनसे एक अच्छा इन्सान बनने का मौका छीन लिया और उसकी परिणति यह हुई कि वह आगे चलकर एक अपराधी बन जाता है। ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता था अगर उनके घरों में ही उनकी गलतियों पर परदा नहीं डाला जाता मगर मोह में ऐसा नहीं हुआ तो लड़कों से अधिक बड़ा अपराध तो इन घरों में हुआ और हो रहा है। बसों में अक्सर देखती हूँ कि सीटें खाली रह जाती हैं और पुरुष खड़े होकर कई घंटे यात्रा करता हैं, बैग अगर भारी भी हुआ तो कोई हाथ नहीं बढ़ाता कि उसका बोझ थोड़ी देर के लिए उठा ले जिससे उसके कंधों को जरा सा आराम मिले, क्योंकि वह मर्द है और युवा भी है। क्या युवा पुरुष होना गुनाह है और क्या यह असमानता नहीं है? हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि पुरुष या स्त्री ने जरा सा मदद का हाथ बढ़ाया नहीं कि लोग चक्कर ढूँढने बैठ जाते हैं और चरित्र का थर्मामीटर लेकर इश्क का बुखार उतारने वाले डॉक्टर बन जाते हैं। नतीजा यह है कि सड़क पर कोई मर भी जाए तो लोग सामने नहीं आएंगे और जिसने बेपरवाह होकर किसी लड़के या लड़की की मदद कर दी, वह निरा घनघोर चक्करबाज बना दिया जाता है और ऐसे समाज में आप संवेदनशीलता खोजेंगे तो वह दूरबीन लेकर ढूँढने से नहीं मिलने वाली है। यह सही है कि लड़कियों का शोषण होता है और उनका फायदा भी उठाया जाता है मगर यह भी सही है कि कुछ लड़कियाँ आगे बढ़ने के लिए शॉर्टकट अपनाती भी हैं और काम से अधिक अपने हाव – भाव और परिधानों से भी बॉस को आगे बढ़ने की सीढ़ी भी बनाती हैं। इसका खामियाजा भी उन लड़कियों को उठाना पड़ रहा है जो सचमुच काम करना चाहती हैं क्योंकि उपरोक्त देवियों की मेहरबानी से बॉस उनसे भी कुछ स्पेशल ट्रीटमेंट चाहने लगते हैं। ऑनर किलिंग का शिकार लड़के भी होते हैं और यकीन न हो तो जोड़ों में आत्महत्या करने वाले या फाँसी पर लटकाए जाने वाले युवाओं को याद कर लीजिए। रिजवानुर के मामले में भी यही हुआ क्योंकि उनकी मौत के बाद भी उसका इस्तेमाल भी उनके अपनों ने भी किया। आज सब अपनी – अपनी जगह पर हैं मगर जान तो रिजवानुर को गँवानी पड़ी। कई ऐसे लड़के हैं जिनकी ऐसी नियति हुई है और वह एक असफल विवाह को ढोकर अपनी और अपनी पत्नी का जीवन नष्ट कर रहे हैं क्योंकि उनकी खीझ और उनका गुस्सा घरेलू हिंसा, अवैध संबंध, हत्या और नशे के रूप में निकल रहा है। रैगिंग का शिकार भी अक्सर लड़के ही होते हैं और यकीन न हो तो आँकड़े यूजीसी से माँगकर देख लीजिए। हम तो चाहेंगे कि मोदी जी अगली बार सेल्फी विद् किड्स का नारा दें क्योंकि डॉटर अगर प्यारी है तो सन ने कोई गुनाह नहीं किया। कल्पना कीजिए कि 4 साल के बच्चे के सामने उसकी बहन की तस्वीर आप भेजकर सोशल मीडिया पर महान बनते हैं तो वह बच्चा अपनी बहन को दुश्मन नहीं समझेगा तो क्या समझेगा? क्या यह असंतुलन लाना नहीं है। कहने का मतलब यह है कि संवेदनशील होना पुरुषों की कमजोरी नहीं, ताकत है और बच्चों पर जबरन मर्दाना बोझ न लादकर इंसान बने रहने दीजिए, उसे एक सामान्य परवरिश दीजिए, अगर कोई तकलीफ है तो उनकी बात सुनिए और उसे खुलकर रोने और हल्का होने दीजिए क्योंकि ये इंसान होने के नाते उसका हक है और क्योंकि बंधु मानों या न मानो, दर्द तो मर्द को भी होता है और उसे स्वीकार कर आगे बढ़ना आपके साथ समाज की सेहत के लिए भी बहुत अच्छा होता है।
The article is too good…Keep writing………:-)