मंगलवार सुबह देश की राजधानी दिल्ली के एक पेट्रोल पंप पर एक आदमी ने मुझ पर हमला किया। वो आराम से आया और चला गया. पंप पर काम करने वाले फिर से पेट्रोल भरने लगे। मैं अकेले ही ख़ुद को, अपना फोन और टूटा हुआ चश्मा समेटने लगी. फिर पुलिस को फोन किया.
मेरी मदद के लिए कोई क्यों नहीं आया? मैंने तो कुछ नहीं किया था। मैं कोई जवान लड़की नहीं हूं। मैंने कोई फ़ैशनेबल कपड़े भी नहीं पहने थे. व़क्त भी सुबह का था। मैं पेट्रोल पंप पर अपनी कार में पेट्रोल भरे जाने के बाद उसका दरवाज़ा खोलकर उसमें बैठ रही थी कि अचानक दूसरी तरफ़ से वो आदमी अपनी स्कूटी पर आया और मेरे बैग समेत मुझसे खींचने लगा।
मैंने बैग वापस खींचा, हम दोनों गिर गए। उसने मुझे गाली दी और ‘रंडी’ बुलाया। जब मैंने विरोध किया उसने थप्पड़ और घूंसे मारे। मेरा चश्मा फेंका और तोड़ दिया।
आसपास के लोग देखते रहे. मानो ये सही था. मानो ‘रंडी’ कहकर उसने मुझे मारने-पीटने का परमिट हासिल कर लिया हो।रात को सड़कों पर निकलकर क्या कहना चाहती हैं ये औरतें?
मैंने उसके जैकेट का टोपा खींचकर हटाने की कोशिश की ताकि उसका चेहरा ठीक से देख सकूं तो उसने टोपा हटाया और मुझे धमकी दी. कहा कि ‘बाद में तने देख लूंगा’। फिर वो जितनी आसानी से आया था वैसे ही चला गया.
आख़िरकार ये सब देख रहा एक आदमी आया और पेट्रोल पंप के लोगों को डांटते हुए पूछने लगा कि उन्होंने उस आदमी को रोका क्यों नहीं? तो उसी से वे उल्टा पूछने लगे, “आप इनके क्या लगते हो?” यानी अगर किसी औरत से रिश्ता न हो तो एक अनजान आदमी उसकी मदद की पेशकश नहीं कर सकता!
पर रिश्ता होना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं. जब मैंने ‘दर्शकों’ से पूछा कि मैं जब चिल्ला रही थी कि उस आदमी की स्कूटी का नंबर नोट कर लो, तो आपने क्यों नहीं किया? एक आदमी बोले, “हमने सोचा वो आपका पति है।”
यानी पति, ब्वायफ्रेंड, पिता और भाई अगर किसी औरत से मारपीट करें तो उन्हें करने दिया जाए! चाहे वो सार्वजनिक जगह हो। शायद इसी सोच के चलते पिछले साल कई औरतों का पीछा कर सड़कों पर उनकी हत्या कर दी गई. हत्या उन लोगों ने की जो महिला से रिश्ते का दावा करते थे, और लोग तमाशबीन बने रहे।
मानो रिश्ते ने भी मारने का परमिट दे दिया। सुरक्षा क्या है? उस पेट्रोल पंप पर लगे चार में से तीन कैमरे काम नहीं कर रहे थे. वो आदमी पंप पर इतनी देर था पर जो कैमरा चल रहा था उसमें सिर्फ़ हमला दिखता है, उसका चेहरा नहीं।
ऐसी तकनीक किस काम की? जिसमें कैद तस्वीरें एक औरत को असहाय दिखा रही है, मानो उसे पीटकर समाज ने उसे उसका दर्जा दिखाया हो। वैसे भी तकनीक चाहे जितनी अच्छी हो, समाज का बदलना ज़्यादा ज़रूरी है.
तब तक यह बहुत ज़रूरी है कि, नेता औरतों के ख़िलाफ़ बयान देना बंद करें, पुलिस सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे और सरकार सुरक्षा के लिए ठोस नीतियां बनायें। मेरे दोस्तों की मदद से आखिरकार मेरे मामले में एफ़आईआर तो हो गई, मेरी चोटें भी ठीक हो जाएंगी, लड़ने से मन का डर भी ख़त्म हुआ।
पर यही बात ख़टक रही है कि अगर बच्चे महिलाओं की ओर हिंसा को सही ठहराने वाली यही सब बातें देखते-सुनते बड़े हुए तो ये कितना बीमार समाज बन जाएगा इसीलिए इस नज़रिए और व्यवहार के खिलाफ आन्दोलन ज़रूरी है।
(साभार – बीबीसी हिन्दी)