एक विद्रोही गायिका-अभिनेत्री शांता आप्टे

रजत जयंती मनाने वाली पहली मराठी और हिंदी फिल्में शांता आप्टे के नाम दर्ज हो गर्इं, तो हिंदी फिल्मों की पहली गजल भी उनकी आवाज में सजी। 1936 में शांताराम के ही निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘अमर ज्योति’ में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उनके साथ सह-कलाकारों में दुर्गा खोटे, वसंती और चंद्र मोहन थे।

भारत में, शुरुआती दौर में सिनेमा को कई समस्याओं से जूझना पड़ा। सिनेमा ने जब बोलना शुरू किया तो पहली मुश्किल अपना मुहावरा गढ़ने को लेकर आई। बांग्ला सिनेमा में काननबाला यानी कानन देवी ने उसे पहचान दिलाई तो मराठी सिनेमा में शांता आप्टे कामयाबी के झंडे गाड़ रही थीं। पिछली सदी के चौथे दशक में शांता आप्टे के नाम कई चीजें दर्ज हुर्इं। मराठी और हिंदी सिनेमा की पहली रजत जयंती प्रदर्शन करने वाली फिल्में इसी दशक में दर्ज हुर्इं, तो हिंदी फिल्मों के लिए पहली गजल भी रिकॉर्ड हुई। फिल्म ‘दुनिया न माने’ महिला सशक्तीकरण के समर्थन में उठने वाली सिनेमा की पहली दमदार आवाज का दस्तावेज बनी, तो शांता ने वास्तविक जीवन में भी प्रोडक्शन हाउस के खिलाफ भूख हड़ताल कर नारी सशक्तीकरण की आवाज बुलंद की।

1916 में महाराष्ट्र में दुधनी के एक ब्राह्मण परिवार में शांता का जन्म हुआ था। स्टेशन मास्टर पिता का गायन के प्रति खासा झुकाव था। पंढरपुर के महाराष्ट्र संगीत विद्यालय में शांता ने संगीत की सरगम सीखी और छोटी-सी उम्र में ही पूना के स्थानीय गणेश उत्सवों में भजन गाने लगीं। महज नौ वर्ष की आयु में अभिनेता-निर्देशक बाबूराव पेंढरकर उन्हें बतौर बाल कलाकार फिल्मों में ले गए और वहीं से शुरू हुआ उनका अभिनय करिअ‍ॅर, लेकिन 1932 में जब भालजी पेंढरकर निर्देशित मराठी फिल्म ‘श्यामसुंदर’ में शांता नवयुवती राधा के रूप में दिखीं, तो सिने उद्योग में एक हलचल-सी मच गई। बतौर अभिनेत्री अपनी पहली ही फिल्म से शांता और सफलता एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए। ‘श्यामसुंदर’ पहली मराठी फिल्म बनी, जिसने एक ही सिनेमाघर में रजत जयंती मनाई और यह संभव हुआ उनके बड़े भाई बाबूराव आप्टे के मार्गदर्शन के कारण, जिन्होंने ‘श्यामसुंदर’ में राधा के पति की भूमिका निभाई। इसके बाद ही व्ही शांताराम ने लगातार तीन फिल्मों में शांता आप्टे को अभिनेत्री चुना।

1934 में उन्हें प्रभात फिल्म्स की व्ही शांताराम निर्देशित ‘अमृत मंथन’ में नायक की बहन का किरदार मिला। यह उनकी पहली हिंदी फिल्म थी, जो उनके लिए बड़ा ब्रेक साबित हुई। ‘अमृत मंथन’ वेनिस के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी शामिल हुई। शांता मूलरूप से अभिनेत्री थीं, लेकिन इस फिल्म से उन्होंने गायन के क्षेत्र में भी पदार्पण कर अपना ऐतिहासिक मुकाम बनाया और वह कानन देवी के साथ पार्श्व गायन युग के शुरुआती गायकों में शुमार हो गर्इं। फिल्म में उन्होंने केशवराव भोले के संगीत निर्देशन में चार एकल गीत गाए, जिनमें ‘कमसिनी में दिल पे गम का’ हिंदी फिल्मों के लिए रिकॉर्ड होने वाली पहली गजल बनी। रजत जयंती मनाने वाली पहली मराठी और हिंदी फिल्में शांता आप्टे के नाम दर्ज हो गर्इं, तो हिंदी फिल्मों की पहली गजल भी उनकी आवाज में सजी। 1936 में शांताराम के ही निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘अमर ज्योति’ में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उनके साथ सह-कलाकारों में दुर्गा खोटे, वसंती और चंद्र मोहन थे। यह प्रभात फिल्म बैनर की पहली फिल्म थी, जिसमें पार्श्व गायन हुआ।

शांता आप्टे के नाम उपलब्धियों और सफलताओं के सुनहरे पन्नों का सफर जारी था। तभी 1937 में व्ही शांताराम की ‘दुनिया न माने’ रिलीज हुई, तो एक कभी न भूलने वाला इतिहास रच गया। समीक्षक इस फिल्म को आज तक एक क्लासिक मानते हैं। दरअसल, जब-जब सिनेमा ने साहित्य का दामन थामा, अधिकतर क्लासिक या श्रेष्ठ फिल्में देखने को मिलीं। हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में इनका चोली-दामन का साथ रहा, जो बाद में छूटता गया और धागे उधड़ते चले गए। ‘दुनिया न माने’ नारायण हरि आप्टे लिखित उपन्यास ‘न पटणारी गोष्ट’ पर आधारित थी, जिसमें शांता ने नवयुवती निर्मला की भूमिका निभाई थी। निर्मला का विवाह केशवराव दाते अभिनीत एक अमीर उम्रदराज व्यक्ति से हो जाता है, जिसकी पत्नी का देहांत हो चुका है। निर्मला सामाजिक मर्यादाओं और परंपराओं का विरोध करती है और उस वृद्ध विधुर को पति मानने से इनकार कर देती है। उसका संघर्ष वृद्ध की सोच बदलता है और अंतत: वह निर्मला को पुनर्विवाह की अनुमति देकर आत्महत्या कर लेता है। ‘दुनिया न माने’ उस समय समाज में प्रचलित बेमेल विवाह जैसी कुरीति के विरुद्ध एक फिल्मकार की जाग्रत चेतना का चित्र सिद्ध हुई और इस फिल्म ने सिनेमा के माध्यम का सशक्त उपयोग भी लक्ष्य किया। अपनी कहानी की वजह से यह फिल्म उस समय बहुत विचारोत्तेजक रही और अब तक क्लासिक की श्रेणी में शुमार की जाती है। फिल्म में शांता ने एचडब्ल्यू लांगफेलो की अंग्रेजी कविता ‘सांग ऑफ लाइफ’ भी गाई। इस फिल्म की अपार सफलता से उत्साहित शांताराम ने शांता को लेकर उसी वर्ष ‘कुंकू’ नाम से इसको मराठी में भी बनाया और वहां भी यह दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। इस तरह यह फिल्म शांता के करिअ‍ॅर की सबसे बड़ी सफलता साबित हुई। 1938 में उन्होंने शांताराम के ही निर्देशन में प्रभात फिल्म्स की एक अन्य प्रसिद्ध फिल्म ‘गोपाल कृष्ण’ में अभिनय किया। शांता ने तमिल फिल्म ‘सावित्री’ में अभिनय 1941 में किया, जिसमें संगीत की रानी एमएस सुब्बुलक्ष्मी नारद की भूमिका में दिखीं। 1943 में एक सामाजिक फिल्म ‘दुहाई’ में उनके साथ सह-नायिका के किरदार में मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां नजर आर्इं।

विष्णु व्यास निर्देशित इस फिल्म में रफीक गजनवी और पन्नालाल घोष ने संगीत दिया था। 1946 में मास्टर विनायक निर्मित और निर्देशित एक पौराणिक फिल्म ‘सुभद्रा’ में उनके साथ सह-भूमिकाओं में याकूब, ईश्वरलाल और स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने अभिनय किया। फिल्म में वसंत देसाई के संगीत निर्देशन में ‘मैं खिली-खिली फुलवारी’ गीत में शांता और लता ने सुर से सुर भी मिलाए। इस प्रकार शांता आप्टे ने भारतीय सिनेमा की तीन सर्वश्रेष्ठ आवाजों के साथ परदे पर साझेदारी की और परदे के पीछे आवाज भी मिलाई। उसके बाद उनकी पारस पिक्चर्स की सर्वोत्तम बडामी निर्देशित और साहू मोदक अभिनीत ‘उत्तरा अभिमन्यु’ और वीएम गुंजाल निर्देशित, सुरेंद्र और याकूब अभिनीत ‘पनिहारी’ फिल्में आर्इं। पृथ्वीराज और राजकपूर के अभिनय से सजी भालजी पेंढरकर निर्देशित शांता की फिल्म ‘वाल्मीकि’ भी उसी वर्ष रिलीज हुई। छठे दशक तक आते-आते शांता आप्टे कम ही फिल्मों में नजर आने लगीं। वह 1950 में केशवराव दाते और लीला चिटनिस के साथ राजा परांजपे की ‘जर जपून’, 1951 में दत्ता धर्माधिकारी निर्देशित ‘कुंकवच ढाणी’, 1953 में केपी भावे निर्देशित ‘तई तेलीन’ और 1955 में मनहर रंगीलदास रस्कापुर निर्देशित ‘मुलु माणेक’ जैसी मराठी फिल्मों में ही दिखीं। उनकी आखिरी दो फिल्में हिंदी में थीं- निरूपा रॉय, मनहर देसाई व प्रेम अदीब अभिनीत और रमन बी देसाई निर्देशित ‘चंडी पूजा’ और इन्हीं कलाकारों के साथ समर चटर्जी निर्देशित 1958 में अंतिम रिलीज फिल्म ‘राम भक्त विभीषण’।
शांता आप्टे एक ऐसी सशक्त महिला के रूप में याद की जाती हैं, जो परदे पर और परदे के बाहर- दोनों जगह महिलाओं की शक्ति का प्रतीक रहीं। ‘दुनिया न माने’ में निर्मला की भूमिका के बाद ‘घरेलू गुरिल्ला’ के रूप में उद्धृत की जाने वाली शांता उस समय कॉलेज छात्राओं के लिए एक प्रेरक रोल-मॉडल बन गई थीं। 1939 में जब प्रभात फिल्म्स के साथ अनुबंध बाहर की फिल्मों में अभिनय करने में बाधक बना तो उन्होंने उस समझौते को चुनौती दी और स्टूडियो गेट के सामने भूख हड़ताल की।

आखिरकार प्रभात फिल्म्स को उन्हें अनुबंध से मुक्त करना पड़ा। यही नहीं, एक सिने-पत्रिका के संपादक बाबूराव पटेल को उनके कार्यालय में लताड़कर शांता ने निजी जीवन में सशक्त नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया था। वह अपने सहज इशारों और नेत्रों की भाव-भंगिमाओं से फिल्मों में गीत-गायन की स्थिर शैली में बदलाव लाकर 1937 में मराठी सिनेमा की सबसे महंगी अभिनेत्री बन गई थीं। कानन देवी ने भी आत्मकथा लिखी थी, लेकिन मराठी में लिखी शांता आप्टे की ‘जाउ मी सिनेमात’ (क्या मुझे फिल्मों में प्रवेश करना चाहिए था) किसी भारतीय फिल्म कलाकार की पहली आत्मकथा मानी जाती है। 1932 से 58 तक भारतीय सिनेमा में सक्रिय रहीं शांता आप्टे छह महीने बीमारी के बाद 24 फरवरी, 1964 को मुंबई में सदा के लिए शांत हो गर्इं। दुर्लभ क्षमता की नारी शांता आप्टे की मृत्यु के दस साल बाद अभिनेत्री नयना आप्टे ने खुद को उनकी बेटी बताते हुए दावा कि उनकी मां शांता ने 1947 में दूर के एक चचेरे भाई से विवाह किया और जब वह तीन महीने की गर्भवती थीं, तब पति को छोड़ दिया था। हालांकि विजय रंचन ने अपनी पुस्तक ‘स्टोरी ऑफ ए बॉलीवुड सांग’ में शांता आप्टे पर आधारित ‘विद्रोही आम व्यक्ति’ अध्याय में लिखा है, ‘शांता अविवाहित थीं, लेकिन उनकी एक बेटी, मराठी फिल्म और रंगमंच अभिनेत्री नयना आप्टे हैं।’ १

 

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