आध्यात्मिकता और परंपरा का संगम है गरबा

शक्ति की आराधना के दिन हैं नवरात्र। श्रद्धा से मां की भक्ति में रमना ही इस त्योहार का पवित्र उद्देश्य है। जिसका माध्यम बनता है ‘गरबा’। या यूं कहें कि मां की भक्ति और उन्हें प्रसन्न करने का सबसे सशक्त माध्यम है ‘गरबा’। गुजरात के इस लोकनृत्य के बिना मानो मां की उपासना अधूरी-सी लगती है।

गुजरात के साथ-साथ गरबे की धूम अब अधिकांश क्षेत्रों में दिखाई देती है। यही वजह है कि गरबा आजकल आधुनिक नृत्यकला की श्रेणी में भी शामिल हो गया है।

आदिशक्ति मां अंबे और दुर्गा की आराधना के साथ पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे बच्चे, युवा, बड़े और बुजुर्ग एक अलग ही अंदाज को प्रस्तुत करते हैं। घट स्थापना के बाद इस नृत्य का आरंभ होता है। जिसके लिए बड़े-बड़े पंडालों को आकर्षक ढंग से सजाया जाता है।

गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा, मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग किया जाता है। कहते हैं लयबद्ध ताल से देवी दुर्गा को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। जहां भक्तिपूर्ण गीतों से मां को उनके ध्यान से जगाने का प्रयास किया जाता है ताकि उनकी कृपा हर किसी पर बनी रहे। पहले देवी के समीप छिद्र वाले घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था।

हालांकि यह परिपाटी आज भी है लेकिन मिट्टी के घट (गरबी) की शक्ल अब स्टील और पीतल ने ले ली है। यह घट ‘दीपगर्भ’ कहलाता है और बाद में यही गरबो और फिर गरबा के रूप में प्रचलित हो गया। तालियों के जरिए किया जाने वाला ताल गरबा और डंडों के प्रयोग से किया जाने वाला डांडिया कहलाने लगा। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, ‘आरती’ से पहले किया जाता है और डांडिया उसके बाद।

‘घूमतो-घूमतो, घूमतो जाए, अंबो थारो गरबो रमतो जाए’, ‘पंखिड़ा ओ पंखिड़ा…’ जैसे गीतों के बजते ही हर किसी के कदम थिरक जाते हैं। चारों ओर ढोलक की थाप और संगीत में गरबों का जो समां बंधता है, उसे कुछ घंटों क्या, पूरी रात करने से भी मन नहीं भरता है। न सिर्फ गरबा करने वाले बल्कि देखने वालों की स्थिति भी यही होती है।

गरबा और डांडिया को मां और महिषासुर के बीच हुई लड़ाई का नाटकीय रूपांतर भी माना गया है। इसलिए इस नृत्य में इस्तेमाल की जाने वाली डांडिया स्टीक को मां दुर्गा की तलवार के रूप में माना जाता है।

यही वजह है कि डांडिया के लिए रंग-बिरंगी लकड़ी की स्टीक्स, चमकते लहंगे और कदमों को थिरकाने वाले संगीत की जरूरत पड़ती है। जिसके लिए गुजराती लोकगीतों का क्रेज सबसे ज्यादा होता है। गरबा को सौभाग्य का भी प्रतीक माना जाता है। इसलिए महिलाएं नवरात्र में गरबा को नृत्योत्सव के रूप में मनाती हैं।

 

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