नवरात्रि के नौ पावन दिनों के पश्चात् दशहरा दरअसल स्वयं के पुर्नपरिचय का महाकाल है, आंतरिक जागरण का कालखण्ड है। नवरात्रि का पर्व किसी पंडाल में स्थापित देवी की कृपा प्राप्त करने का नहीं, बल्कि अपने ही भीतर के सप्तचक्रों पर विराजित अपनी ही नौ शक्तियों के बोध और अपनी बाह्य ऊर्जा से नौ गुनी शक्तिशाली आंतरिक ऊर्जा को सहजता और सरलतापूर्वक सक्रीय करने की पावन बेला है। अपने अंतर्मन से बाहर पंडाल में देवी की स्थापना तो बस स्वयं से जुड़ने की किसी वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा प्रतीत होती है, जिसकी तकनीक कालांतर में विस्मृत होने से आज सिर्फ पारंपरिक मान्यताओं की खुराक बन कर रह गयी है।
दशहरा और दशरथ दोनों में दस है। दस से अभिप्राय है दस इन्द्रियां। पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां। इन्हीं इन्द्रियों को पराजित करने का अभिप्राय है यह पर्व। स्वयं पर विजय पाने वाला ही दशरथ कहलाता है। राम दशरथ की संतान हैं। राम कहीं बाहर से नहीं, इन्हीं दशरथ से अर्थात् हमारे भीतर से ही प्रस्फुटित होते हैं। दशरथ हमारी आपकी आंतरिक क्षमता का प्रतीक पुरुष है, महाचिन्ह है। विजयादशमी अपने ही भीतर के सप्त सुप्त चक्रों पर आसीन नौ ऊर्जाओं और अपनी बाह्य शक्ति से नौ गुनी अधिक आंतरिक क्षमता के बोध से सर्वत्र विजय की महाअवधारणा है। नवरात्रि के नौ दिनों की साधना के पश्चात् स्वयं पर काबू पाकर विजय की दशमी अर्थात् विजयादशमी का सूत्रपात संभव है। मूल भाव तो यही है कि स्वयं को जीते बिना जगत को या किसी को भी जीतोगे कैसे।
(साभार – जनसत्ता)