ऐ सखी सुन 22
सभी सखियों को नमस्कार। सखियों गर्मियों के दिन आ गये हैं और साथ ही समय आ गया है कि हम भारी -भरकम ऊनी पोशाकों को बक्से में सहेजकर रखा दें और हल्के सूती पोशाकों को अपनी अलमारी में फिर से सजा लें। मौसम का तकाजा है कि कपड़ों के बोझ से मुक्त होकर, खुलेपन का एहसास किया जाए लेकिन सखियों हम औरतों के साथ यह समस्या है कि हमारा खुलापन मर्दवादी सोच के पैरोकारों को कुछ ज्यादा ही चुभता है शायद इसीलिए गर्मियों का आनंद उठाने के लिए जहाँ समाज का आधा या आधे से थोड़ा सा ज्यादा हिस्सा (आंकड़ों की मानें तो स्त्रियों की संख्या पुरुषों से कम हैं) मनमाने ढंग से कपड़े पहन कर सहजता से विचरण कर सकता है, वहीं बाकी की आधी से थोड़ी कम आबादी पर तरह -तरह की बंदिशें लाद दी जाती हैं। एक जमाने में तो औरत को पराये पुरुष की छाया से भी बचाने के लिए, घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया जाता था और कपड़ों के ढेर से इस तरह ढँक दिया जाता था कि कभी -कभी उसके लिए साँस लेना ही दूभर हो जाता था। उसका बाहर निकलना तो खैर वर्जित था ही लेकिन अगर कभी किसी कार्यवश निकलना पड़ा तो इस तरह कपड़ों की सात तहों के नीचे अपने को छिपाकर निकलना पड़ता था कि उसकी कानी अंगुली तक किसी को दिखाई नहीं पड़ती थी। अब भी दूर दराज के गाँवों में जब नयी दुल्हन आती है तो हाथ भर लंबा घूंघट निकालकर आती है जिससे उसे न रास्ते का पता चलता है ना गंतव्य का और शायद इसीलिए हमेशा से उसे सहारे की आवश्यकता पड़ती रही। उसे कहीं भी आना- जाना हो, साथ में कोई न कोई जरूर रहना चाहिए।
इसी के साथ, वह क्या खाएगी, क्या पहनेगी और किससे मिलेगी, यह सभी पुरुष सत्ता तय करती है। और ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ अतीत की कहानी है, आज भी कमोबेश ऐसा ही होता है। कहने को भले ही आज की औरत ने आज़ादी हासिल कर ली है लेकिन उसकी आजादी का परवाना तो अभी भी गिरवी रखा है, पुरुष सत्तात्मक समाज की तिजोरी में और शायद इसीलिए यह आजादी एक भ्रम या सपने सी ही लगती है जो थोड़ी देर के लिए झूठी ख़ुशी का अहसास कराकर फिर गायब हो जाती है। आज भी अगर कोई मर्द, वह घर का हो या बाहर का, अगर एक जिम्मेदार स्त्री को यह बताता, समझाता है कि उसकी पोशाक कैसी होनी चाहिए और उसकी पोशाक के आधार पर उसके संस्कारों को तोलता है तो समझ लेना चाहिए कि अभी भी स्त्री की स्वतंत्रता की कहानी आधी अधूरी है और उसकी समझदारी पर समाज को जरा भी भरोसा नहीं है।
हालांकि फैशन की अंधी दौड़ में खुद को कुर्बान करने वाली स्त्रियों की वकालत, मैं नहीं करती लेकिन इतना तय करने का अधिकार तो एक शिक्षित और समझदार स्त्री को है ही कि वह क्या पहने, क्या नहीं। कुछ पोशाकें तो पेशे के आधार पर तय कर ली जाती हैं और अगर उसमें जरा भी फेरबदल करने की कोशिश की गई तो तूफ़ान सा बर्पा हो जाता है। आज भी स्कूल और महाविद्यालय की शिक्षिकाओं के लिए साड़ी का पहनावा ही सर्वसम्मति से स्वीकृत है और बहुत से शिक्षण संस्थानों में सलवार कमीज़ जो साड़ी की तुलना में कहीं ज्यादा सुविधाजनक है, तक को स्वीकार नहीं किया जाता। मुझे बंगाल के एक स्कूल की घटना याद आ रही है, जब एक स्कूल की शिक्षिका के सलवार कमीज़ पहन कर आने के कारण बहुत हंगामा हुआ था। और जब इस देह ढंकनेवाली पोशाक पर इतनी हाय- तौबा मचती है तो महिलाओं का जरा सा ही सही आधुनिक हो जाने को उच्छृंखलता का नाम दे दिया जाना तो हम स्त्रियों को भले नागवार गुजरे, पुरुष सत्ता के लिए तो स्वाभाविक ही है। लेकिन क्या हम इन नियमों को आँख मूंदकर, सिर झुका कर, स्वीकार करते जाएंगे। अगर हाँ, तो फिर हमें तैयार रहना होगा, उस दिन के लिए भी जब हमें दोबारा सात हाथ लंबे घूंघट के पीछे ढकेल दिया जाएगा और हमारी हर आवाज अनसुनी कर दी जाएगी।
पोशाक का काम है शरीर को ढंकना, कैद करना नहीं। और अगर कोई विशेष पोशाक अशालीन है तो समाज के हर व्यक्ति के लिए होनी चाहिए ना कि कि किसी एक अंश विशेष के लिए। हमारा नैतिकतावादी समाज तो औरतों के घूंघट में छिपे शरीर को भी भेदने और जानने की ख्वाहिश ही नहीं रखता, मौका मिलने पर ऐसा करता भी है तो फिर आधुनिक वस्त्रों में सजी नारी को देख कर उनकी कामनाओं का बेलगाम हो जाना स्वाभाविक ही है। लेकिन प्रश्न यह है कि दोष पोशाक पहनने वाले का है या उसे देखनेवाली दृष्टि का। अगर देखनेवाली नजर सभ्य नहीं होगी तो फिर पहनने वाला या वाली कुछ भी क्यों ना पहन लें, उसे हर हाल में दोषी साबित करने की कोशिश की जाती रहेगी। इसीलिए समाज के एक अंश विशेष की बेलगाम ख्वाहिशों और कामनाओं पर लगाम लगाने की आवश्यकता है, स्त्रियों के पहनावे पर नहीं। स्त्रियों के लिए ‘ड्रेस कोड’ तय करने वाले तथाकथित समाज सुधारक अगर अपने संकीर्ण विचारों को उदारता की पोशाक पहनाएं और दिमागी अंधेरे को तालीम की रोशनी से चमका लें तो समाज खुद ब खुद संवर जाएगा।
अपनी कुंठाग्रस्त सोच से स्त्रियों पर निशाना साधने वाले पुरुषों के संस्कारों पर सवाल उठाने का समय आ गया है। बचपन में सुनी एक घटना अनायास याद आ रही है। कोलकाता के सार्वजनिक वाहनों में जब कुछ स्त्रियाँ बिना आस्तीन के ब्लाउज पहन कर सफर करती थीं तो कुछ कुंठित मानसिकता वाले मनचले उनकी खुली बाँहों पर ब्लेड चलाकर उन्हें सबक सिखाने की कोशिश करते थे। समय भले ही बदल गया है लेकिन मानसिकता बहुत कम ही बदली है। मनचले हो या जीभजले अपने हाथों में ब्लेड और जुबान पर अंगारे लेकर अब भी वैसे ही निर्द्वंद्व विचर रहे हैं। स्त्रियों की अस्मत को तार- तार करने और उसके बाद उन्हें संस्कार सिखाने की जीतोड़ कोशिश करते दिखाई देते हैं, ये संस्कारी पुरुष। ये संस्कारी लोग ही बलात्कार के बाद बलात्कारियों को नहीं पीड़ित महिलाओं को कठघरे में खड़ा कर , उनके पहनावे, आचरण और व्यवहार पर सवाल उठाते हैं। ऐसे लोग और उनकी संकीर्ण सोच समाज के लिए बहुत ज्यादा घातक है। सखियों, स्त्रियां तो तालीम हासिल कर नये समाज का सपना देख रही हैं, अब जरूरत है इन तथाकथित नैतिकता के पहरेदारों और संस्कारों के झंडाबरदारों को शिक्षित और संस्कारित करने की। अगर इनकी सोच बदलेगी तो समाज खुद ब खुद बदल जाएगा। अब समाज को बदलने की जिम्मेदारी आधी से ज्यादा आबादी की तो होनी ही चाहिए। आखिर कब तक आधी से कम अर्थात अल्पसंख्यक आबादी को कोसते हुए, उसे संस्कारित करने की कोशिश की जाती रहेगी। तो संस्कारवान पुरुषों, अगर आप सब थोड़ा सा ही सही सभ्य हो जाएंगे तो समाज का भी विकास होगा और देश का भी।
विदा सखियों, अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी, एक नये मसले पर बोलेंगे- बतियाएंगे और उदार समाज बनाने की कोशिश करेंगे।