झंकार कर दो

माखनलाल चतुर्वेदी

वह मरा कश्मीर के हिम-शिखर पर जाकर सिपाही,

बिस्तरे की लाश तेरा और उसका साम्य क्या?

पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ उठ आज उसका गान करतीं,

घाटियों पगडंडियों से निज नई पहचान करतीं,

खाइयाँ हैं, खंदकें हैं, जोर है, बल है भुजा में,

पाँव हैं मेरे, नई राहें बनाते जा रहे हैं।

यह पताका है,

उलझती है, सुलझती जा रही है,

जिन्दगी है यह,

कि अपना मार्ग आप बना रही है।

मौत लेकर मुट्ठियों में, राक्षसों पर टूटता हूँ,

मैं, स्वयं मैं, आज यमुना की सलोनी बाँसुरी हूँ,

पीढ़ियाँ मेरी भुजाओं कर रहीं विश्राम साथी,

कृषक मेरे भुज-बलों पर कर रहे हैं काम साथी,

कारखाने चल रहे हैं रक्षिणी मेरी भुजा है,

कला-संस्कृति-रक्षिता, लड़ती हुई मेरी भुजा है।

उठो बहिना,

आज राखी बाँध दो श्रृंगार कर दो,

उठो तलवारों,

कि राखी बँध गई झंकार कर दो।

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